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नकुलीश - पाशुपत - दर्शनम्
क्रियाशक्तिमत्वं तेनैश्वर्येण नित्यसम्बन्धित्वम् । आद्यत्वमनागन्तुकैश्वर्यसम्बन्धित्वम् - इत्यादर्शकारादिभिस्तीर्थकरैनिरूपितम् ।
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सारी वस्तुओं की सृष्टि, संहार और अनुग्रह ( कृपा ) करनेवाले तत्त्व को कारण ( ईश्वर ) कहते हैं । यद्यपि यह एक ही है फिर भी गुण और कर्म के भेदों की अपेक्षा रखने के कारण इसके विभाग ( Kinds ) भी कहे गये हैं- 'पति आद्यगुण से युक्त है... ..." इत्यादि । इस सूत्र में पति का अर्थ है निरतिशय ( सर्वोच्च) दृक्शक्ति और क्रियाशक्ति ( देखें परि० ३ ) से युक्त होकर उसी ऐश्वर्य के द्वारा नित्य सम्बन्ध धारण करना । आद्य का अर्थ ऐसे ऐश्वर्य से सम्बद्ध होना जो ( ऐश्वर्य ) आगन्तुक या आकस्मिक न हो ( प्रत्युत नित्य हो ) – इसी प्रकार 'आदर्श' आदि ग्रन्थों के लेखक तीर्थकरों ( शास्त्रप्रवर्तकों) ने इनका निरूपण किया है ।
चित्तद्वारेणेश्वरसम्बन्धहेतुर्योगः ( पाशु० सू० ५।२ ) । स च द्विविधःक्रियालक्षणः, क्रियोपरमलक्षणचेति । तत्र जपध्यानादिरूपः क्रियालक्षणः, क्रियोपरमलक्षणस्तु निष्ठासंविद्गत्यादिसंज्ञितः ।
चित्त ( जीव के बोधात्मक गुण - विशेष ) के द्वारा [ जीव का ] ईश्वर के साथ जो सम्बन्ध होता है उसके कारणों को योग कहते हैं । यह भी दो प्रकार का है - क्रिया से युक्त और क्रिया की निवृत्तिवाला । जप, ध्यान आदि के रूप में जो योग ( जीवेश्वर सम्बन्ध करानेवाला ) है उसे क्रियायुक्त योग कहते हैं [ क्योंकि इसमें कुछ काम करना पड़ता है ] क्रिया की निवृत्तिवाला योग वह है जिसकी संज्ञाएं निष्ठा ( महेश्वर में अविचल भक्ति ), संवित् ( तत्त्वज्ञान ), गति ( शरणागति ) आदि हैं ।
( ६. विधि का निरूपण )
धर्मार्थसाधकव्यापारो विधिः । च द्विविधः - प्रधानभूतो गुणभूतश्च । तत्र प्रधानभूतः साक्षाद्धर्महेतुश्चर्या । सा द्विविधा - व्रतं द्वाराणि चेति । तत्र भस्मस्नानशयनोपहारजपप्रदक्षिणानि व्रतम् । तदुक्तं भगवता नकुलीशेनभस्मना त्रिषवणं स्नायोत, भस्मनि शयीत ( पा० सू० १८ अग्रतः ) इति ।
अत्रोपहारो नियमः । स च षडङ्गः । तदुक्तं सूत्रकारेण -- हसित-गीतनृत्य- हुडुक्का र-नमस्कार- जप्यषडङ्गोपहारेणोपतिष्ठतेति ।
धर्म (महेश्वर) रूपी अर्थ ( लक्ष्य ) की सिद्धि करने के लिए ( महेश्वर के समीप पहुँचाने के लिए ) जो भी व्यापार या कर्म करें वह विधि है । [ विधान होने के कारण इसे विधि कहते हैं । ] इसके दो भेद हैं- प्रधान विधि और गौण विधि । प्रधान विधि वह है जो साक्षात् धर्म का कारण हो, इसे चर्या भी कहते हैं । इसके भी दो भेद हैं- व्रत और
१. गुण -- सत्व, रज, तमस् । कर्म --- सृष्टि, पालन, संहार ।