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रामानुज-दर्शनम्
१६१ ( ४. रामानुज-दर्शन के तीन पदार्थ ) एष हि तस्य सिद्धान्तः-चिदचिदीश्वरभेदेन भोक्तृ-भोग्य-नियामकभेदेन च व्यवस्थितास्त्रयः पदार्था इति । तदुक्तम्. १. ईश्वरश्चिदचिच्चेति पदार्थत्रितयं हरिः।
ईश्वरश्चिदिति प्रोक्तो जीवो दृश्यमचित्पुनः ॥ इति ॥ उस ( रामानुज ) दर्शन का यही सिद्धान्त है--चित् ( Soul ) अचित् ( Universe ) और ईश्वर ( God ) के भेद से, जो क्रमशः भोक्ता ( Enjoyer, subject ), भोग्य ( Object ) और नियामक ( Controller ) हैं-तीन प्रकार के निश्चित पदार्थ हैं । ऐसा ही कहा है-'ईश्वर, चित् और अचित् के रूप में पदार्थों की संख्या तीन है; हरि ( विष्णु ) ही ईश्वर है, चित् से जीव का अभिप्राय है और दृश्यमान जगत् ( Appearance ) अचित् है।'
(५. अद्वैत-वेदान्त का इस विषय में पूर्वपक्ष ) अपरे पुनरशेषविशेषप्रत्यनीकं चिन्मानं ब्रह्मव परमार्थः। तच्च नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावमपि 'तत्त्वमसि' (छा० उ० ६८७ ) इत्यादिसामानाधिकरण्याधिगतजीवैक्यं बध्यते मुच्यते च ।
तदतिरिक्तनानाविधभोक्तृभोक्तव्यादिभेदप्रपञ्चः सर्वोऽपि तस्मिन्नविद्यया परिकल्पितः, 'सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्' ( छा० उ० ६।२।१) इत्यादिवचननिचयप्रामाण्यात्-इति ब्रुवाणाः, 'तरति शोकमात्मवित्' (छा० उ० ७.११३) इत्यादिश्रुतिशिरःशतवशेन निविशेषब्रह्मात्मैकत्वविद्ययाऽनाद्यविद्यानिवृत्तिमङ्गोकुर्वाणाः, 'मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति' ( काठ० उ० २११) इति भेदनिन्दाश्रवणेन पारमार्थिक भेदं निराचक्षाणाः, विचक्षणम्मन्याः तमिमं विभागं न सहन्ते ।
कुछ लोग (शाङ्कर वेदान्ती), जो अपने को बड़े बुद्धिमान् मानते हैं ( विचक्षणम्मन्याः ), इस विभाजन को नहीं मानते ( इससे सहमत नहीं हैं ) [ मायावादी थोड़ा भी द्वैत नहीं सहन कर सकते । ] [ उनकी मान्यता है कि चित् के रूप में ( स्वयं प्रकाशित होनेवाले ज्ञानमात्र के स्वरूप में) केवल ब्रह्म ही परमार्थ ( Ultimate reality ) है जिसमें सारे ( अशेष) विशेषण ( जैसे-ह्रस्वत्व, दीर्घत्व, शब्द, स्पर्श, ज्ञातृत्व, नित्यत्व आदि सभी व्यावहारिक विशेषण जो किसी पदार्थ की सीमा स्थिर करते हैं कि यह इस तरह का है ) शत्रु के रूप में हैं ( = कोई विशेषण ईश्वर में नहीं लग सकता)। उस ब्रह्म का स्वभाव (Essence ) ही नित्य ( Eternal ), शुद्ध ( Pure ), बुद्ध ( Intelligent ) तथा मुक्त ( Free ) रहना है, फिर भी 'तत्त्वमसि' ( वह तुम्हों हो ) की तरह के वाक्यां से ज्ञात होनेवाले सामानाधिकरण्य ( जीव और ब्रह्म का एक होना, समानाधिकरण = एक
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