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५२. सदागमैकविज्ञेयं
सर्वदर्शनसंग्रहे
समतीतक्षराक्षरम् ।
नारायणं सदा वन्दे निर्दोषाशेषसद्गुणम् ।।
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( वि० त० १ ) इति । अद्वैतवादियों का यह कहना है कि 'शास्त्र का अर्थ ( प्रयोजन, आवश्यकता ) वहीं है जहाँ दूसरे प्रमाणों के द्वारा उसकी सिद्धि नहीं होती हो' इस न्याय ( नियम ) से केवल अद्वैत में ही शास्त्रों का तात्पर्य ( अर्थ ) है, भेद ( द्वैत ) तो प्रत्यक्षतः उपलब्ध होता है। इसलिए उसमें शास्त्र का तात्पर्य नहीं हो सकता । उनकी इस धारणा का खण्डन उपर्युक्त विधि से कर दिया गया । [ अद्वैत की सिद्धि प्रत्यक्षादि से नहीं होती, शास्त्र यदि है तो अद्वैत के लिए- -यह अद्वैतियों की धारणा है । ]
अनुमान से ईश्वर की सिद्धि नहीं होती, फिर उसके भेद की भी तो सिद्धि उससे नहीं ही हो सकेगी । इसलिए इन श्रुतिवाक्यों में भेद का अनुवाद ( व्याख्या ) नहीं किया गया है, प्रत्युत ये शास्त्र ही भेदपरक हैं । [ 'अनन्यलभ्यः शास्त्रार्थः ' के न्याय से ही यह कहा जा सकता है कि भेद की सिद्ध किसी दूसरे प्रमाण से नहीं होती, इसलिए शास्त्र का तात्पर्य ही भेद-प्रतिपादन में है। अनुमान के द्वारा भेद की सिद्धि नहीं होती । बस, इतना ही पर्याप्त है । शास्त्र का तात्पर्य ही उसी में है । ]
इसलिए कहा गया है —— 'जो केवल श्रेष्ठ आगमों ( शास्त्रों ) से जाने जाते हैं, जो क्षर ( प्रकृति ) और अक्षर ( जीव ) को अच्छी तरह पार कर चुके हैं, जो सर्वथा निर्दोष हैं एवं सभी सद्गुणों (जैसे पूर्णानन्द आदि ) से युक्त हैं वैसे नारायण की मैं सदा वन्दना करता हूँ ] ' ( विष्णुतत्त्वविनिर्णय, मङ्गलश्लोक ) ।
( १७. शास्त्रों का समन्वय )
शास्त्रस्य
तत्र प्रामाण्यमुपपादितं ' तत्तु समन्वयात्' (ब्र० सू० १।१४ ) इति । समन्वय उपक्रमादिलिङ्गम् । उक्तं च बृहत्संहितायाम् -- ५३. उपक्रमोपसंहारावभ्यासोऽपूर्वता फलम् ।
अर्थवादोपपत्ती च लिङ्ग तात्पर्यनिर्णये ॥ इति ।
ब्रह्म के विषय में शास्त्र की प्रामाणिकता भी सिद्ध की गई है - ' किन्तु उसकी [ प्रामाणिकता तो ] समन्वय करने के बाद ही सिद्ध होती है' (ब्र० सू० १।१।४ ) [ शास्त्र की प्रामाणिकता तभी सम्भव है जब विष्णु के अर्थ में ही उन शास्त्रों या श्रुतियों का समन्वय किया जाय । समन्वय का अर्थ है सम्यक् ( ठीक ) प्रकार से सम्बन्ध या अन्वय दिखलाना । ] उपक्रम ( आरम्भ ) आदि चिह्नों के द्वारा समन्वयं ( शास्त्र के अर्थ का निर्णय ) होता है । बृहत्संहिता में कहा गया है - ' उपक्रम, उपसंहार, अभ्यास, अपूर्वता, फल, अर्थवाद और उपपत्ति- ये सब शास्त्र का तात्पर्य निर्णय करने के समय लिङ्ग ( चिह्न Mark ) के रूप में रहते हैं ।'