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सर्वदर्शनसंग्रहे
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ब्रह्मविद्या के अधिकारियों में देवता उत्तम, ऋषि- गन्धर्व मध्यम तथा मनुष्य मन्द या अधम हैं। अधिकारियों में ( १ विष्णुभक्ति, ( २ ) अध्ययन, ( ३ ) शमदमादियोग, ( ४ ) संसार की असारता ध्यान में रखते हुए वेराग्य लेना तथा ( ५ ) विष्णु के चरणों में एकमात्र शरण लेना -- ये गुण आवश्यक हैं। प्रथम दो गुणों की अधिकता से अधम, तृतीय की अधिकता से मध्यम और अन्तिम दोनों की अधिकता से उत्तम अधिकारी होता है । ( १५. ब्रह्म का लक्षण )
जिज्ञास्यब्रह्मणो लक्षणमुक्तं 'जन्माद्यस्य यतः ' ( ब्र० सू० १।१।२ ) इति । सृष्टिस्थित्यादि यतो भवति तद् ब्रह्मेति वाक्यार्थः । तथा च स्कान्दं
वच:
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४७. उत्पत्तिस्थितिसंहारा नियतिर्ज्ञानमावृतिः । बन्धमोक्षौ च पुरुषाद्यमात्स हरिरेकराट् ॥
यतो वा इमानीत्यादिश्रुतिभ्यश्च ।
जिस ब्रह्म की जिज्ञासा की जाती है उसका लक्षण बतलाया गया है - 'इस ( संसार ) के जन्म आदि जिससे हुआ करते हैं' ( ब्र० सू० १।१।२ ) वाक्य का अर्थ यह है कि सृष्टि, स्थिति आदि जिससे हों वही ब्रह्म है । स्कन्दपुराण की उक्ति भी है— 'जिस पुरुष से उत्पत्ति, स्थिति, संहार, नियन्त्रण, ज्ञान, अज्ञान ( आवृति ), बन्ध तथा मोक्ष उत्पन्न होते हैं, वे ही एकमात्र सम्राट् हरि हैं ।' यही नहीं, श्रुति का प्रमाण भी है - 'जिससे सभी जीव " ( ० ३|१|१ ) |
विशेष - शंकर जन्मादि का अर्थ केवल सृष्टि, पालन और संहार लेते हैं । देखें"जन्मस्थितिभङ्गं समासार्थः श्रुतिनिर्देशस्तावत् 'यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते' इति, अस्मिन्वाक्ये जन्मस्थितिप्रलयानां क्रमदर्शनात् । अन्येषामपि भावविकाराणां त्रिष्वेवान्तर्भावः इति जन्मस्थिनिनाशानामिह ग्रहणम् ।" ( शारीरकभाष्य, १।१।२ ) । द्वैतवेदान्ती खींचखाच करके आठ उत्पन्न पदार्थ लेते हैं । यों तो और भी सम्भव हैं जो श्रुति इसका आधार है वह यह है—'यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रत्यभिसंविशन्ति' ( तै० ३|१|१ ) । तात्पर्य यह है कि उसी ब्रह्म से सारे पदार्थ जन्म लेते हैं, जन्म लेने पर जीते हैं, उसी में लीन होकर प्रवेश कर जाते हैं । स्पष्टतः तीन ही विकारों का वर्णन किया गया है । पर मध्वपक्षी 'य आदित्यमन्तरो यमयति' ( बृ० ३।७।९ ) इत्यादि श्रुतियों से द्वारा नियमन आदि भावों का संग्रह करते हैं ।
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( १६. ब्रह्म के विषय में प्रमाण )
तत्र प्रमाणमप्युक्तं 'शास्त्रयोनित्वात्' ( ब्र० सू० १|१|३ ) इति । 'नावेदविन्मनुते तं बृहन्तम्' ( तै० ब्रा० ३।१२।९।७ ) 'तं त्वौपनिषदम्' ( बृ० ३।९।२६ ) इत्यादिश्रुतिभ्यस्तस्यानुमानिकत्वं निराक्रियते । न चानुमानस्य स्वातन्त्र्येण प्रमाण्यमस्ति । तदुक्तं कौमें