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नकुलीश-पाशुपत-दर्शनम् ( ५ ) अवस्था ( Perseverence )—व्यक्ता, अव्यक्ता, जया, दान, निष्ठा ।
( ६ ) विशुद्धि ( Purification )—प्रत्येक मल की हानि, जैसे मिथ्याज्ञानहानि अधर्महानि आदि।
(७) दीक्षाकारिन् ( Initiation )-द्रव्य, काल, क्रिया, मूर्ति, गुरु । (८) बल ( Power )-गुरुभक्ति, बुद्धिप्रसाद, द्वन्द्वजय, धर्म, अप्रमाद ।
(९) वृत्ति ( Functions )-जीविकोपाय-भिक्षा, उत्सृष्टग्रहण, यथालब्धग्रहण । इन गणों का संक्षिप्त वर्णन आगे प्रस्तुत किया जायगा।
तत्र विधीयमानमुपायफलं लाभः। ज्ञानतपोनित्यत्वस्थितिशुद्धिभेदात्पञ्चविधः । तदाह हरदत्ताचार्य :
'ज्ञानं तपोऽथ नित्यत्वं स्थितिः शुद्धिश्च पञ्चमम् ।'
आत्माश्रितो दुष्टभावो मलः। स मिथ्याज्ञानादिभेदात्पञ्चविधः तदप्याह
३. मिथ्याज्ञानमधर्मश्च सक्तिहेतुश्च्युतिस्तथा। .. पशुत्वमूलं पञ्चैते तन्त्र हेया विविक्तितः ॥
(गणकारिका,८) इति । (१) उपाय के फलों को प्राप्त करने का नाम लाभ है। ज्ञान, तपस्, नित्यत्व, स्थिति और शुद्धि के भेद से पांच प्रकार का है, जैसा कि हरदत्ताचार्य कहते हैं-'ज्ञान, तपस्या, नित्यता, स्थिति (धैर्य ) और पांचवां शुिद्धि ( स्वच्छता, पवित्रता )-ये • लाभ हैं।'
(२) आत्मा के अवस्थित दुष्ट भावों ( Conditions ) को मल कहते हैं । मिथ्याज्ञान आदि के भेद से वह पांच प्रकार का है। यह भी कहा है-'मिथ्याज्ञानं, अधर्म ( Demerit ), आसक्तिहेतु ( Causes of Attachment ), च्युति ( सदाचार से भ्रष्ट होना ) और पशुत्वमूल ( जीव प्राप्त करने के अनादि संस्कार ), इन पांच मलों को तन्त्र में (इस शास्त्र में ) विवेक द्वारा त्यागना चाहिए।' साधकस्य शुद्धिहेतुरुपायो वासचर्यादिभेदात्पञ्चविधः। तदप्याह
४. वासचर्या जपो ध्यानं सदा रुद्रस्मृतिस्तथा ।
प्रपत्तिश्चेति लाभानामुपायाः पञ्च निश्चिताः ॥ इति । येनार्थानुसन्धानपूर्वकं ज्ञानतपोवृद्धी प्राप्नोति स देशो गुरुजनादिः ।
५. गुरुर्जनो गुहादेशः श्मशानं रुद्र एव च । इति । (३) साधक की शुद्धि के कारणों को उपाय कहते हैं जिसके वासचर्या आदि पांच भेद हैं । इसे भी कहा है-वासचर्या ( अच्छी तरह निवास करने के नियम ), जप, ध्यान,
१. हेयाधिकारतः-इति क्वनित्पाठः । १७ स० सं०
यदाह