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सर्वदर्शनसंग्रहे
रुद्र का सदा स्मरण करना और प्रपत्ति ( शरणागति )-ये लाभों के उपाय निश्चित किये गये हैं। [ वासचर्या आदि पाँच प्रकार की शुद्धि करके साधक पांच लाभों को प्राप्त करता है। उपाय = लाभ के उपाय, लाभ = उपाय के फलों की प्राप्ति
( ४ ) जिनके पास रहकर अर्थों ( = कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखान्त ) का अनुसन्धान करते हुए [ साधक ] ज्ञान और तपस्या की वृद्धि प्राप्त करता है वह देश है जैसे गुरु, जन आदि । उसे कहा है-गुरु, जन ( ज्ञानियों की सभा ), गुहा-देश ( गुफा, एकान्त स्थान ), श्मशान तथा रुद्र । [ इनके पास रहकर साधक ज्ञान की वृद्धि करता है ( गुरु और जन के साथ ), तथा तपस्या की भी वृद्धि करता है ( अवशिष्ट तीनों के साथ )] ।
आलाभप्राप्तेरेकमर्यादावस्थितस्य यदवस्थानं साऽवस्था व्यक्तादिविशेषणविशिष्टा। तदुक्तम्
व्यक्ताऽव्यक्ता जया दानं निष्ठा चैव हि पञ्चमम् । इति ।
मिथ्माज्ञानादीनामत्यन्तव्यपोहो विशुद्धिः। सा प्रतियोगिभेदात्पञ्चविधा । तदुक्तम्
६. अज्ञानस्याप्यधर्मस्य हानिः सङ्गकरस्य च ।
च्युतेर्हानिः पशुत्वस्य शुद्धिः पञ्चविधा स्मृता ॥ इति । (५) लाभ की प्राप्ति पर्यन्त जब साधक एक ही प्रकार से अवस्थित रहता है तब उसकी यही अवस्थिति अवस्था कहलाती है, जिसमें व्यक्त आदि विशेषण लगाते हैं [ तथा पाँच प्रकार की होती है ] । यह कहा है-व्यक्तावस्था ( जब किसी साधक के उपाय, अनुष्ठान आदि प्रकाशित हों, लोगों की स्तुति-निन्दा की चिन्ता न रहे ), अव्यक्तावस्था ( जब साधक सब गुप्त रूप से करे ), जयावस्था ( मन और इन्द्रियों की विजय करके अवस्थित रहना ), दानावस्था ( सब कुछ त्याग देना ) और निष्ठावस्था ( महेश्वर में सदा अविच्छिन्न भक्ति रखना), यह पांचवीं है।
(६) मिथ्याज्ञान आदि का बिलकुल ( सर्वथा ) विनाश हो जाना विशुद्धि है । प्रतियोगियों ( जिनका विनाश होता है, Partner, Competitor ) के पाँच भेद होने के कारण यह भी पाँच प्रकार की है। [ मल पाँच प्रकार के हैं, उनमें प्रत्येक का विनाश करना अभीष्ट है, इसलिए इस विशुद्धि के पाँच भेद हैं । ] कहा है-अज्ञानहानि, अधर्महानि, आसक्तिहेतु को हानि, च्युतिहानि और पशुत्वहानि-शुद्धि पाँच प्रकार की मानी गयी है। दीक्षाकारिपञ्चकं चोक्तम्
७. द्रव्यं कालः क्रिया मूर्तिर्गुरुश्चैव हि पञ्चमः । इति । बलपञ्चकं च--
८. गुरुभक्तिः प्रसादश्च मतेर्द्वन्द्वजयस्तथा।
धर्मश्चवाप्रमादश्च बलं पञ्चविधं स्मृतम् ॥ इति ।