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पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् विशेष-श्रुति के अर्थ का संशय होने पर उपक्रम आदि लिंगों के द्वारा उसका निर्णय होता है, कम से कम तात्पर्य तो समझा जा सकता है, भले ही व्याख्या न हो सके । प्रतिपाद्य विषय का आरम्भ करना उपक्रम ( Commencement ) है। आरम्भ को देखकर बीच के वाक्यों का अर्थ अपने आप खुल हो जाता है। जब इसके बाद भी संशय रह जाय तो उपसंहार ( Conclusion ) का सहारा लें। विस्तारपूर्वक निरूपित बातों का सारांश करना उपसंहार है, जिससे अर्थनिर्णय में सहायता मिलती है। फिर भी यदि सन्देह रहे तो एक ही बात को एक प्रकार से कहे जानेवाले स्थलों अर्थात् अभ्यास ( Reiteration ) का आश्रय लें। इसके बाद अपूर्वता ( Novelty ) का आग्रह है जिसमें किसी दूसरे प्रमाण से असिद्ध नई बात को दृढ़तापूर्वक कहा जाता है। संभव है कि नई बात के प्रतिपादन में ही श्रुति का अर्थ छिपा हो। प्रयोजन से युक्त होना फल ( Result ) है । इसकी आवश्यकता अपूर्वता के बाद पड़ती है। अपूर्वता में मुख्य का प्रतिपादन होता है जब कि फल में मुख्य वस्तु के उद्देश्य का वर्णन होता है । फल के बाद भी सन्देह होने पर अर्थवाद ( Eulogy ) का आश्रय लेते हैं जिसमें स्तुति या निन्दा का बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन होता है। अन्त में उपपत्ति या युक्ति ( Demonstration ) ही सहायक होती है जिससे अर्थ का निर्णय होता है । इन लिङ्गों में पूर्वपर के क्रम से प्रबलता बढ़ती जाती है। कहा है-उपक्रमादिलिङ्गानां बलीयो ह्युत्तरोत्तरम् । मीमांसा-दर्शन में इन लिङ्गों का बड़ा महत्त्व है, क्योंकि श्रुति में कहे गये विधिवाक्यों का अर्थ-निर्णय करना उनका प्रथम कर्तव्य है। विशेष विवरण के लिए लौगाक्षिभास्कर का अर्थसंग्रह या आपदेव का मीमांसा-न्यायप्रकाश देखना चाहिए ।
(१८. पूर्णप्रज्ञ-दर्शन का उपसंहार ) एवं वेदान्ततात्पर्यवशात् तदेव ब्रह्म शास्त्रगम्यमित्युक्तं भवति । दिङमात्रमत्र प्रादशि । शिष्टमानन्दतीर्थभाष्यव्याख्यानादौ द्रष्टव्यम् । ग्रन्थबहुत्वभियोपरम्यत इति।
इस प्रकार वेदान्तों ( उपनिषदों ) का तात्पर्य जानकर वही ब्रह्म शास्त्र के द्वारा बोधनीय है-यही कहने का अभिप्राय है। हमने यहाँ केवल दिशा का निर्देश किया, बाकी बातें आनन्दतीर्थ के [ ब्रह्मसूत्र ]--भाष्य के व्याख्यान आदि में देखनी चाहिए। ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से अब हम रुकते हैं ।
विशेष-आनन्दतीर्थ या पूर्णप्रज्ञ ( समय ११२०-११९९ ई० ) ने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा था । जिससे द्वैतवाद का प्रर्वतन हुआ। इस भाष्य पर जयतीर्थ ( ११९३१२६८ ), श्रीनिवासतीर्थ ( १३०० ), विद्याधीश आदि ने टीकाएं की हैं।
एतच्च रहस्यं पूर्णप्रज्ञेन मध्यमन्दिरेण वायोस्तृतीयावतारम्मन्येन
निरूपितम्।