________________
२४९
पूर्णप्रश-दर्शनम् ४८. श्रुतिसाहाय्यरहितमनुमानं न कुत्रचित् । ___ निश्चयात्साधयेदर्थ प्रमाणान्तरमेव च ॥ ४९. श्रुतिस्मृतिसहायं यत्प्रमाणान्तरमुत्तमम् ।
प्रमाणपदवीं गच्छेन्नात्र कार्या विचारणा ॥ इति । उस ( ब्रह्म ) के विषय में प्रमाण भी कहा गया है-'शास्त्रों में इसका स्रोत है ( शास्त्रों से वह ब्रह्म ज्ञेय है ) ( ब्र० सू० १११।३)' । 'उस महान् पुरुष को वेद नहीं जाननेवाला व्यक्ति नहीं जान पाता ( ते० ब्रा० ३।१२।९।७ ), 'उपनिषदों में वर्णित उस पुरुष को (बृ० ३।९।२६)' आदि श्रुतियों से इस बात का खण्डन होता है कि वह अनुमान के द्वारा ज्ञेय है । [ अशास्त्रज्ञ व्यक्ति के द्वारा ब्रह्म का अज्ञेय होना, उपनिषदों के द्वारा उसका ज्ञान आदि बातें स्पष्ट रूप से घोषित करती हैं कि ब्रह्म एकमात्र शास्त्रों के द्वारा ही समधिगम्य ( जानने योग्य ) है, अनुमान द्वारा इसका ज्ञान नहीं होता।]
मनुमान स्वतन्त्र रूप से प्रमाण है भी नहीं। कर्म-पुराण में तो कहा ही गया हैश्रुति ( शब्द-प्रमाण ) की सहायता से रहित होकर अनुमान या कोई भी दूसरा प्रमाण (प्रत्यक्षादि ) निश्चित रूप से | अदृष्ट विषय की ] किसी वस्तु की सिद्ध नहीं कर सकता ( प्रमाणिक नहीं हो सकता ) श्रुति-स्मृति की सहायता मिलने पर ही कोई दूसरा प्रामाण ( प्रत्यक्षादि ) अच्छा हो सकता है और प्रमाण की कोटि में जा सकता है, इसमें विचार ( सन्देह ) नहीं करना चाहिए।
शास्त्रस्वरूपमुक्तं स्कान्दे५०. ऋग्यजुःसामाथर्वा च भारतं पाश्चरात्रकम् ।
मूलरामायणं चैव शास्त्रमित्यभिधीयते ॥ ५१. यच्चानुकूलमेतस्य तच्च शास्त्रं प्रकीर्तितम् ।
अतोऽन्यो ग्रन्थविस्तारो नैव शास्त्रं कुवम तत् ॥ इति । । शास्त्र का स्वरूप स्कन्दपुराण में कहा गया है—ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, महाभारत, पंचरात्र और मूलरामायण ( वाल्मीकि रामायण का प्रथम अध्याय )ये ही ग्रन्थ शास्त्र कहलाते हैं, जो ग्रन्थ इनके सिद्धान्तों के अनुकूल हैं, वे भी शास्त्र ही हैं । इनके अतिरिक्त जो भी ग्रन्थों का समूह है, वह शास्त्र नहीं है । उन पर चलना कुमार्ग पर चलना है । [ अपने शास्त्रों का उल्लेख इस प्रकार हुआ।]
तदनेन, 'अनन्यलभ्यः शास्त्रार्थः' इति न्यायेन भेदस्य प्राप्तत्वेन तत्र न तात्पर्य किन्तु अद्वैत एव वेदवाक्यानां तात्पर्यम्-इत्यद्वैतवादिनां प्रत्याशा प्रतिक्षिप्ता। अनुमानादीश्वरस्य सिद्धयभावेन तद्भेदस्यापि ततः सिद्धयभावात् । तस्मान्न भेदानुवादकत्वमिति तत्परत्वमवगम्यते। अत एवोक्तम्