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सर्वदर्शनसंग्रहे
आधार, Identity ) से उसकी एकता जीव के साथ सिद्ध होती है, और इसलिए वह वन्धन में भी पड़ता है और मुक्त भी होता है । [ 'तत्त्वमसि' का अर्थ है - वह (ब्रह्म) तुम (जीव ) हो अर्थात् ब्रह्म ही जीव है । यद्यपि ब्रह्म मुक्त है किन्तु उपर्युक्त वाक्य में दोनों की एकता होने के कारण जीव के रूप में ब्रह्म बन्धन में पड़ता है। जीव और ब्रह्म के ऐक्य का जब साक्षात्कार हो जाता है तब वह ब्रह्म मुक्त हो जाता है । ] उस (ब्रह्म) के अतिरिक्त, भोक्ता ( जीव ), भोग्य ( जगत् ) आदि के भेदों के रूप में नाना प्रकार के प्रपंच ( विस्तार Universe of diversities ) उस ब्रह्म में ही कल्पित किये जाते हैं - ये सारे के सारे अविद्या Illusion, ignorance ) से परिचालित होते हैं । इसके लिए कितने ही वाक्य प्रमाण के रूप हैं, जैसे – 'हे सौम्य ( प्रसन्न - मुख शिष्य ), सबसे पहले यह सत् ( Existent ) ही उत्पन्न हुआ था, जो अकेला था, दूसरा कुछ नहीं था; इस प्रकार की बातें ये ( माया वेदान्ती ) लोग करते हैं । [ अद्वितीय मानने से ब्रह्म निर्विशेष मालूम पड़ता है, उसमें कोई विशेषण नहीं लग सकता । यदि विशेषण लग सकते तो वे ही विशेषण लगकर दूसरे ब्रह्म भी हो सकते। जब तक सूत्र ( Formula ) नहीं मालूम है तब तक एक ही कलाकृति है, जिस क्षण कृति के विशेष या सूत्र ज्ञात हो जायेंगे उसी क्षण दूसरी कृति निर्मित हो जायगी । ]
'आत्मा को जाननेवाला शोक को पार कर जाता है' ( छा० उ० ७।१।३ ) इस तरह के सेकड़ों वेदवाक्यों के सिर पर सवार होकर ( Taking advantage of ), निर्विशेष ब्रह्म और आत्मा के एकत्व ( Identity ) के ज्ञान से ( आत्मा के शुद्ध रूप का साक्षात्कार करके ), अनादिकाल से चली आनेवाली अविद्या ( माया, भ्रम ) की निवृत्ति हो जाती है - ऐसा वे स्वीकार करते हैं । 'जो व्यक्ति इस ( ब्रह्म ) को नाना प्रकार के रूप में देखता है, वह मृत्यु के बाद भी पुनः मृत्यु ( जन्मान्तर में ) पाता है' (का० उ० २1१ ) यहाँ [ जीव और ब्रह्म में ] भेद माननेवाले की निन्दा सुनकर दोनों के बीच ये ( मायावेदान्ती ) तात्विक भेद नहीं मानते ।
( ५. क. रामानुज का उत्तर-पक्ष, अद्वैतियों की अविद्या का पूर्वपक्ष )
तत्रायं समाधिरभिधीयते । भवेदेतदेवं यद्यविद्यायां प्रमाणं विद्येत । नन्विदमनादि भावरूपं ज्ञाननिर्वत्र्त्यमज्ञानम् 'अहमज्ञो मामन्यं च न जानामि' इति प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धम् । तदुक्तम्
२. अनादि भावरूपं यद्विज्ञानेन विलीयते । तदज्ञानमिति प्राज्ञा लक्षणं सम्प्रचक्षते ॥
( चित्सुखी १९ ) इति । इन सभी शंकाओं का समाधान इस प्रकार है - [ शांकर वेदान्तियों का ] कथन ठीक माना जाता, यदि अविद्या को मानने के लिए प्रमाण रहते । [ अविद्या को माननेवाले यह