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सर्वदर्शनसंग्रहेतदेवमेवंविधनियमविशेषसमासावित-पुरुषोत्तम-प्रसाद-विध्वस्त-तमःस्वान्तस्य अनन्यप्रयोजनानवरतनिरतिशय-प्रिय-विशवात्मप्रत्ययावभासतापन्नध्यानरूपया भक्त्या पुरुषोत्तमपदं लभ्यत इति सिद्धम् । तदुक्तं यामुनेन-उभयपरिमितस्वान्तस्यकान्तिकात्यन्तिकभक्तियोगो लभ्य इति । ज्ञानकर्मयोगसंस्कृतान्तःकरणस्येत्यर्थः। ____ इस प्रकार वह व्यक्ति जो इन विशेष नियमों का सम्पादन करके प्रसन्न किये गये पुरुषोत्तम भगवान् की कृपा से अपने भीतर के सारे अन्धकारों को नष्ट कर चुका है, ऐसी भक्ति से पुरुषोत्तम का पद प्राप्त करता है जिस भक्ति में [ परमात्मा को छोड़कर ] कोई दूसरा प्रयोजन नहीं रखकर, निरन्तर सबसे अधिक ( निरतिशय ) प्रिय आत्मा के विशद प्रत्यय (विचार) अर्थात् स्पष्ट अवभास का ध्यान किया जाता है। [ इस लम्बे समस्तपद-युक्त-वाक्य का अर्थ यही है कि उपर्युक्त नियमों से परमेश्वर को पाकर उनकी कृपा से सारे कर्मों का क्षय कर दें तथा उसमें निरन्तर ध्यान लगाकर उनकी भक्ति दिखलायें जिससे परमेश्वर का परमपद वैकुण्ठ प्राप्त हो । ] ____ यामुनाचार्य ( समय १०४० ई०, रचनाए-आगमप्रमाण्य, सिद्धित्रय, गीतार्थसंग्रह और स्तोत्ररत्न ने ) कहा है-'दोनों ( ज्ञान और कर्म ) के द्वारा जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया हो वही एकान्तिक ( Final ) तथा आत्यन्तिक ( Absolute ) पूर्ण भक्तियोग पा सकता है ।' तात्पर्य यह है कि ज्ञानयोग और कर्मयोग से जिसका अन्तःकरण संस्कारवान् हो चुका है [ वही व्यक्ति परमपद पा सकता है । ]
(२२. द्वितीय सूत्र-ब्रह्म का लक्षण ) किं पुनर्ब्रह्म जिज्ञासितव्यमित्यपेक्षायां लक्षणमुक्तम्-'जन्माद्यस्य यतः' ( ब्रह्मसूत्रम् १११।२) इति । जन्मादीति सृष्टिस्थितिप्रलयम् । तद्गुणसंविज्ञानो बहुव्रीहिः। अस्याचिन्त्यविविधविचित्ररचनस्य नियतदेशकालभोगब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तक्षेत्रज्ञमिश्रस्य जगतो, यतो = यस्मात् सर्वेश्वरात् निखिलहेयप्रत्यनीकस्वरूपात् सत्यसंकल्पाद्यनवधिकातिशयासंख्येयकल्याणगुणात् सर्वज्ञात्सर्वशक्तेः पुंसः सृष्टिस्थितिप्रलयाः प्रवर्तन्त इति सूत्रार्थः । ___ अंब प्रश्न होता है कि किस ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए ? इसकी आशंका से ही ब्रह्म का लक्षण कहा गया है-'जिससे इस ( संसार ) के जन्मादि होते हैं' (ब्र० सू० १११।२) जन्मादि का अर्थ है सृष्टि, स्थिति और प्रलय । [ 'जन्मादि' शब्द में ] बहुव्रीहि समास है जो अपने अन्दर स्थित पदों के अर्थों को भी ग्रहण करता है ( तद्गुणसंविज्ञान ) । सूत्र का यह अर्थ है-अस्य = इस अचिन्तनीय ( Inconceivable ) विविध प्रकार की विचित्र रचनाओं वाले तथा निश्चित देशकाल में फल को भोगने का नियम ब्रह्मा से लेकर तृण ( स्तम्ब ) पर्यन्त सभी जीवों (क्षेत्रज्ञों) जहाँ समान (मिश्र ) है, ऐसे जगत् का,