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सर्वदर्शनसंग्रहे
भेद को स्वीकार करने का कोई कारण नहीं दिखलायी पड़ता ( मूलाभावात् ) । भेद और भेदी दोनों भिन्न हैं ऐसा व्यवहार देखने में नहीं आता । [ आशय यह है कि जिस प्रकार 'घट और पट भिन्न हैं' ऐसा व्यवहार पट को प्रतियोगी और घट को धर्मी मानकर चलता है, उसी प्रकार यदि 'भेद ( द्वितीय भेद ) तथा भेदी ( प्रथम भेद ) भिन्न है' ऐसा व्यवहार लोक में दिखलायी पड़ता तभी द्वितीय भेद की सिद्धि हो सकती थी, किन्तु ऐसा होता नहीं इसलिए अनवस्था नहीं है। भेद एक ही होता है, वह चाहे दूसरी बार हो या तीसरी बार । 'घट पट से भिन्न है' इसमें एक भेद है, अब 'वह भेद स्वयं घट से भिन्न है' यहाँ प्राप्त भेद भी कोई अलग नहीं - सर्वत्र एक प्रकार के भेद की ही प्राप्ति होती है । ]
न चैकभेदबले नान्यभेदानुमानम् । दृष्टान्तभेदाविधातेनोत्थाने दोषाभावात् । सोऽयं पिण्याकयाचनार्थं गतस्य खारिका तैलदातृत्वाभ्युपगम इव । दृष्टान्तभेदविमर्दे त्वनुत्थानमेव । न हि वरविघाताय कन्योद्वाहः । तस्मान्मूलक्षयाभावादनवस्था न दोषाय ।
ऐसी भी शंका नहीं करनी चाहिए कि एक भेद के बल से दूसरे भेद का अनुमान होता चला जायगा ( अनवस्था घेर ही लेगी ) । [ आशय यह है कि प्रथम भेद का प्रतियोगी घट है, फिर द्वितीय भेद का अनुमान, द्वितीय भेद से तृतीय का, इस प्रकार अनुमान से अनवस्था हो जायगी, परन्तु मध्व इसका खण्डन करते हैं । ] यह अनवस्था दृष्टान्त के रूप में दिये गये प्रथम भेद का बिना नाश किये ही यदि उत्पन्न होती है तब तो अनवस्था मानने में कोई दोष ही नहीं है । [ भेद को तो आप इस प्रकार स्वीकार करते ही हैं । आप भेद स्वीकार कर लें फिर हम पर लाखों दोष क्यों न आरोपित करें ! हमारा काम समाप्त ! ] यह दोषारोपण ऐसा ही है, जैसे कोई थोड़ी-सी तिल की खली ( Oil-cake ) माँगने जाय और उसे एकाध पसेरी तेल ही देना पड़ जाय । ] थोड़ी-सी वस्तु माँगे और अधिक वस्तु स्वयं देनी पड़े । भेदवादियों पर अनवस्था लगाने जाय और अनुमान द्वारा दोषारोपण करने में दृष्टान्त के रूप में स्वयं भेद ( खण्डनीय वस्तु ) को स्वीकार करना पड़े । ] दूसरी ओर, यदि भेद को दृष्टान्त के रूप में स्वीकार ही न करें तो अनुमान ही नहीं होगा [ और फलतः अनवस्था - दोष नहीं लगेगा ] । कन्या का विवाह वर के विनाश के लिए नहीं होता [ अनुमान का आधार लेकर चलनेवाली अनवस्था सोधे अनुमान का ही विनाश कर देती ।] इसलिए हमारे मूल का क्षय न करने के कारण अनवस्था कोई भी दोष नहीं लाती ।
विशेष - प्रस्तुत सन्दर्भ कठिन के साथ-साथ मनोरंजक भी कम नहीं । जब अनुमान से पूर्वपक्षी लोग एक भेद से दूसरे भेद की सिद्धि करके अनवस्था का आरोपण करने लगते हैं तब इस प्रकार का परामर्श होता है
द्वितीय भेद किसी दूसरे भेद के द्वारा भेद्य है ( प्रतिज्ञा + साध्य ) । क्योंकि वह भी एक प्रकार का भेद है ( हेतु ) 1