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पूर्ण प्रज्ञ -वर्शनम्
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ज्ञानाज्ञानाभ्यां ग्रामो ज्ञातोऽज्ञात इत्येवमादिव्यपदेशो दृष्ट एव । यथा च कारणे पितरि ज्ञाते जानात्यस्य पुत्रमिति । यथा वा सादृश्यादेकस्त्रीज्ञानाद् अन्यस्त्रीज्ञानमिति ।
[ छान्दोग्योपनिषद् ( ६।११४ ) में एक वाक्य है - 'यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृण्मयं विज्ञातं स्यात्' । इसके पूर्व में वाक्य है— एवं चाविज्ञानं विज्ञातं भवति । इन उद्धरणों में एक के ज्ञान से सभी अविज्ञात वस्तुओं के ज्ञान का वर्णन किया गया है । इसका अर्थ अद्वैतवेदान्ती लोग जगत् को मिथ्या मानते हुए करते हैं । जगत् ब्रह्म की शक्ति अविद्या से विवर्तरूप से उत्पन्न हुआ है, वह मिथ्या है, इसीलिए वास्तव में आत्मा का ज्ञान ही सब कुछ है, उसे जानने से ही सबों का ज्ञान हो जाता है - इसी के आधार पर जगत् को मिथ्या मानते हैं, लेकिन मध्वाचार्य इस श्रुतिवाक्य का दूसरे रूप में अर्थ करते हैं, दोनों के फलों या निष्कर्षो में अन्तर है। उनका कहना है कि ] एक के जानने से सबों का जानना इसलिए युक्तियुक्त है कि प्रधानता या कार्यकारण-सम्बन्ध आदि होने के कारण ऐसा कहा गया है, इसलिए नहीं कि सब कुछ मिथ्या है। इसका कारण यह है कि सत्य - वस्तु ( जैसे शुक्ति, ब्रह्म आदि ) के ज्ञान से मिथ्या वस्तु ( रजत, जगत् आदि ) का ज्ञान सम्भव नहीं है । [ सीपी को जानने से चाँदी को भी जान लेगा, ऐसी स्थिति कहीं नहीं है, बल्कि यही ज्ञान हो सकता है कि यह चाँदी नहीं है । ये दोनों ज्ञान एक-दूसरे के विरोधी हैं । ] '
[ अब प्रधानता, कार्यकारण सम्बन्ध तथा सादृश्य के कारण उक्त श्रुति कैसे युक्तियुक्त है, इसका विवेचन करते हैं - ] जैसे किसी गाँव के प्रधान व्यक्तियों को जानने या न जानने से गाँव को ही जानने या नहीं जानने का लौकिक प्रयोग लोगों में साधारणतः देखा जाता है । पुनः जिस प्रकार कारण के रूप में पिता को जान लेने पर उसके पुत्र को भी जान लेते हैं अथवा जिस तरह सादृश्य के कारण एक स्त्री को जान लेने पर दूसरी स्त्रियों का ज्ञान हो जाता है ।
विशेष - - एक विज्ञान से सबों का विज्ञान स्वरूप पर आधारित नहीं है, फल पर ही निर्भर करता है । ऐसी बात नहीं है कि एक वस्तु का स्वरूप जान लेने पर भी वस्तुओं का विधिवत् ज्ञान हो जाता है। बल्कि सब के ज्ञान का फल एक के ज्ञान से ही मिलता है । प्रधान वस्तु के ज्ञान से सबका ज्ञान होता है, कारण के ज्ञान से कार्य का ज्ञान होता है। तथा किसी वस्तु के ज्ञान से उसकी तरह की अन्य वस्तुओं का ज्ञान होता है । स्त्री का लक्षण है - स्तनों और केशों ( कोमल ) का होना, इसे देखने से अन्य स्त्रियों के ज्ञान का
१. इसके विरुद्ध पतंजलि महाभाष्य में कहते हैं—यो हि शब्दाञ्जानात्यप-शब्दान
प्यसौ जानाति । ( पस्पशाह्निक, व्याकरणप्रयोजनप्रकरण ) ।
२. तुलनीय - 'स्तनकेशवती स्त्री स्याल्लोमशः पुरुषः स्मृतः ' ।