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सर्वदर्शनसंग्रहे
ऐसा कहना ठीक नहीं कि 'तत्त्वमसि' ( वह तुम्हीं हो ) इस वाक्य में स्थित [ जीव और ईश्वर के बीच ] तादात्म्य - सम्बन्ध से कोई विरोध है क्योंकि ऐसा कहना वेदों के तात्पर्य को न जानकर किया गया बकवाद ( Babbling ) है ।
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[ प्रश्न यह है कि ] 'तत्' शब्द सामान्य रूप से नित्य-परोक्ष पदार्थ का बोध कराता है, दूसरी ओर, 'त्वम्' शब्द प्रत्यक्ष वस्तु का बोधक है, दोनों में एकता कैसे हो सकती है ? ॥ ३० ॥ [ किन्तु उत्तर यही होगा कि ] इस श्रुति वाक्य में 'आदित्य ही यूप है' ( = आदित्य के समान यूप है ) - - इस वाक्य की तरह ही [ लक्षणा ] से सादृश्य का अर्थ है । [ जिस प्रकार आदित्य और यूप ( यज्ञ का खूंटा ) में एकता असम्भव देखकर सादृश्य - अर्थ की कल्पना होती है उसी प्रकार 'तत्' और 'त्वम्' में एकता असम्भव होने से इस श्रुति में जीव को ब्रह्म का सरूप ( सदृश ) मानने का तात्पर्य लिया जाता । ] ॥ ३१ ॥
जैसा परम श्रुति में कहा गया है— 'जीव की परम ( Ultimate ) एकता का अर्थ है बुद्धि ( ज्ञान ) में समरूप ( Similar ) हो जाना [ यद्यपि परमात्मा के ज्ञान के अनुसार जीव का ज्ञान होने के कारण परमात्मा जो-जो जान सकता है वही जीव नहीं जान सकता ], या एक ही स्थान पर रहना ( वैकुण्ठ लोक में जीव और परमात्मा का एक साथ रहना ही जीव की एकता है ), किन्तु यह निवास मूलस्थान के व्यंजक ( वैकुण्ठ लोक ) को ही ध्यान में रखते हुए कहा गया है । [ 'एक साथ निवास करना' कहने पर बद्ध जीवों के साथ भी परमात्मा का रहना सम्भव है, पर ऐसी बात नहीं । मूलस्थान अर्थात् वैकुण्ठ लोक में ही एक स्थान पर रहने का अभिप्राय है इसीलिए 'व्यक्ति स्थान' का उल्लेख किया गया है । ] ' ॥ ३२ ॥
'जीव [ बद्ध तो क्या, ] यदि मुक्त हो जाय तब भी विरुद्ध धर्म होने के कारण ( विरूपतः ) ईश्वर से स्वरूप में एक नहीं हो सकता । उन दोनों में विरूपताएं यही हैंईश्वर में स्वतन्त्रता और पूर्णता है जब कि जीव में अल्पता ( अणुत्व ) और परतन्त्रता है' ॥ ३३ ॥
( ११ क. तत्त्वमसि का दूसरा अर्थ )
अथवा तत्त्वमसीत्यत्र स एवात्मा स्वातन्त्र्यादिगुणोपेतत्वात् । अतत्त्वमसि त्वं तत्र भवसि तद्रहितत्वादित्येकत्वमतिशयेन निराकृतम् । तदाहअतत्त्वमिति वा छेदस्तेनैक्यं सुनिराकृतम् । इति ।
तस्माद् दृष्टान्तनवकेऽपि स यथा शकुनिः सूत्रेण प्रबद्ध:' ( छा० ६।८।३ ) इत्यादिना भेद एव दृष्टान्ताभिधानान्नायमभेदोपदेश इति तत्त्ववाद रहस्यम् ।
[ अब 'आत्मा तत्त्वमसि' की व्याख्या दूसरे प्रकार से करने के लिए इसका पदच्छेद दूसरे रूप में करते हैं कि 'आत्मा + अतत् + त्वमसि' = तुम वही नहीं हो। इसके लिए