________________
सर्वदर्शनसंग्रहे
इन्हीं बातों पर ध्यान रखते हुए भगवान् कृष्ण ने कहा है- 'संसार में ये ही दो पुरुष हैं, क्षर और अक्षर । ये सभी पदार्थ ( Beings ) क्षर ( perishable ) हैं, वह कूटस्थ अर्थात् अविकृत पदार्थ ही अक्षर ( Imperishable ) कहा जाता है' ॥ २१ ॥ इनसे पृथक् एक दूसरा पुरुष है जो परमात्मा के नाम से पुकारा जाता है । वह अव्यय ( Undecaying ) ईश्वर है जो तीनों लोकों को अपने में समेट करके ही धारण करता है ।। २२ ।।
२३२
[ कृष्ण आगे कहते हैं - ] 'चूँकि मैं सर-पदार्थ के ऊपर हूँ तथा अक्षर से भी ऊंचा हूँ, इसलिए लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम के रूप में विख्यात हूँ ॥ २३ ॥ सम्मोह ( Infatuation ) से रहित होकर जो व्यक्ति मुझे पुरुषोत्तम के रूप में जानता है; हे अर्जुन, वह सब कुछ जान जाता है तथा सब प्रकार से मुझे भजता है ।। २४ ॥ हे निष्पाप (अर्जुन), इस प्रकार मैंने सबसे अधिक गोपनीय शास्त्र का वर्णन किया । हे अर्जुन, इसे जानकर मनुष्य बुद्धिमान ( आन्तरिक ज्ञान- सम्पन्न ) तथा कृतकृत्य ( अपने कार्यों को समाप्त कर देनेवाला ) हो जाता है ।' ( गीता १५।१६-२० ) ।
( १०. मोक्ष ईश्वर के प्रसाद से ही मिलता है )
महावराहेऽपि -
२६. मुख्यं च सर्ववेदानां तात्पर्यं श्रीपतौ परे । उत्कर्षे तु तदन्यत्र तात्पर्यं यादवान्तरम् ॥ इति । युक्तं च विष्णोः सर्वोत्कर्षे महातात्पर्यम् । मोक्षो हि सर्वपुरुषार्थोत्तमः । २७. धर्मार्थकामाः सर्वेऽपि न नित्या मोक्ष एव हि ।
नित्यस्तस्मात्तदर्थाय यतेत मतिमान्नरः ॥
इति भाल्लवेयश्रुतेः ।
महावराह (पुराण) में भी कहा गया है कि सभी वेदों का मुख्य तात्पर्य परम श्रीपति (विष्णु) में ही स्थित है, उनसे भिन्न किसी देवता के गुणों में तात्पर्य होना तो गौण ( Subordinate purport ) है ।। २६ ।। यह युक्तिसंगत है कि विष्णु के उत्कर्ष का वर्णन ही महान ( मुख्य ) तात्पर्य [ उन वेदों का ] है । मोक्ष ही सभी पुरुषार्थों में ऊंचा है जैसा कि भाल्लवेय उपनिषद् में कहा गया है - 'धर्म, अर्थ और काम, ये सब कोई
१. तुल० - ब्रह्मा शिवः सुरेशाद्याः शरीरक्षरणात्क्षराः ।
लक्ष्मीरक्षर देहत्वादक्षरा तत्परो हरिः ॥
ब्रह्मा, शिव, इन्द्र आदि क्षर हैं क्योंकि इनके शरीर नष्ट होते हैं । अक्षर देह होने के कारण लक्ष्मी अक्षरा है। इन दोनों चेरनों से भिन्न हरि हैं । लोक = संसार या पर्यालो - चना करने पर |