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सर्वदर्शनसंग्रह
कहते हैं क्योंकि 'मय' का अर्थ 'बड़ा' होता है । इन शब्दों से एकमात्र विष्णु की प्रज्ञा ( Excellent Knowledge ) का ही बोध होता है ॥ १५ ॥ हरि विशिष्ट ज्ञान के स्वरूप हैं, उस विशिष्ट ज्ञान ( प्रज्ञा ) का लक्षण है निरन्तर ( अपने आप ) आनन्दप्राप्ति ।। १६ ॥-इन वचनों के प्रमाण से [ माया का अर्थ भगवान् की इच्छा सूचित होता है ] ।
सेव प्रज्ञा मानत्राणकों च यस्य तन्मायामात्रम् । ततश्च परमेश्वरेण ज्ञानत्वाद्रक्षितत्वाच्च न द्रुतं भ्रान्तिकल्पितम् । न हीश्वरे सर्वस्य भ्रान्तिः संभवति । विशेषादर्शननिबन्धनत्वाद् भ्रान्तेः।
तहि तव्यपदेशः कथमित्यत्रोत्तरमद्वैतं परमार्थत इति । परमार्थत इति परमार्थापेक्षया । तेन सर्वस्मादुत्तमस्य विष्णुतत्त्वस्य समभ्यधिकशून्यत्वमुक्तं भवति। __ [ ऊपर प्रपंच को मायामात्र कहा गया है । अब मायामात्र शब्द का अर्थ करते हैं-] ईश्वर की उपर्युक्त प्रज्ञा ( इच्छा, माया, बुद्धि ) जिसको मापे ( Measure out ) और जिसकी रक्षा करे वही है मायामात्र ( माया + /मा+Vत्रा)। अतः यह सिद्ध हुआ कि परमेश्वर इस प्रपंच को जानते हैं तथा रक्षा भी करते हैं ( अर्थात् प्रपञ्च सत्य है, तभी तो परमेश्वर इसे जानते हैं तथा रक्षा करते हैं)। इसलिए द्वैत भ्रान्ति ( भ्रम Illusion ) के द्वारा कल्लित नहीं है ( सत्य है)। ईश्वर को भी सभी पदार्थों के विषय में भ्रान्ति होगी—यह सम्भव नहीं है क्योंकि भ्रान्ति विशेष ( भेद ) के अ-दर्शन पर निर्भर करती है। [ ईश्वर के लिए कोई भी पदार्थ अदृश्य नहीं.-वे सब कुछ देखते हैं इसलिए उन्हें भ्रान्ति नहीं होगी । ]
फिर [ माण्डूक्य कारिका में ] उसका उल्लेख ही क्यों हुआ ? [ ईश्वर के लिए 'अद्वैतः सर्वभावानाम्' आदि श्लोकों में अद्वैत शब्द से क्यों अभिहित किया गया है ? ] इसका उत्तर है कि परमार्थ से अद्वैत तत्त्व होता है । 'परमार्थ से' का मतलब है परमार्थ की अपेक्षा रखने पर । इसलिए अभिप्राय यही है कि सब से ऊंचा विष्णु-तत्त्व है, कोई न तो उसके समान है, न उससे ऊंचा ।
विशेष-अद्वैत की खींच-तान खूब ही की गयी है । तत्त्व परमार्थतः अद्वैत है अर्थात् परम ( सबसे ऊचे ) अर्थ ( = विष्णु ) को लक्षित करने पर तत्त्व अद्वैत ही है । विष्णु सबसे ऊंचा है, एक ही तत्त्व है क्योंकि उतना ऊंचा कोई तत्त्व नहीं, न तो उसकी कोई बराबरी कर सकता न उससे बढ़ सकता है । अतः अद्वैत का अर्थ है सबसे ऊंचा, न कि एकमात्र तत्त्व ।
तथा च परमा श्रतिः