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सर्वदर्शनसंग्रहे
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दान ) से सभी लोग प्रसन्न होते हैं। [ इन्द्र के मित्र विष्णु से सभी प्रसन्न होते हैं अर्थात् विष्णु और लोक में पार्थक्य है । ]' 'उन (विष्णु भगवान् ) की वह महिमा सच है, मैं - ब्राह्मणों के राज्य रूपी यज्ञों में सुख ( शवः ) के उद्देश्य से उनकी प्रार्थना करता हूँ।' [VP = प्रार्थना करना (क्रयादि, परस्मै० ) । ] 'आत्मा ( परमात्मा ) सत्य है, जीव, सत्य है, उन दोनों का भेद भी सत्य है, भेद सत्य है, भेद सत्य है, [ परमात्मा ] दुष्टों के द्वारा ( आरुभिः ) सेवनीय ( वन्यः ) नहीं है । ( मा एव ), दुष्टों के द्वारा सेवनीय नहीं है, दुष्टों के द्वारा सेवनीय नहीं है।' इन श्रुतियों में मोक्ष और आनन्द में भेद का प्रतिपादन किया गया है। [ आरु–अर = दोष, अर + उण (मतुप के अर्थ में ) आरु = दोषयुक्त।]
११. इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः। ____सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ ( गी० १४॥२ )
'जगद्व्यापारवर्जम्'; 'प्रकरणादसंनिहितत्वाच्च' (ब्र० सू० ४।४। १७-१८) इत्यादिभ्यश्च । न च 'ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति' (मु० ३।२।९) इति श्रुतिबलाज्जीवस्य पारमैश्वय शक्यशङ्कम् । 'सम्पूज्य ब्राह्मणं भक्तया । शूद्रोऽपि ब्रह्मणो भवेत्'--इतिवद् बृंहितो भवतीत्यर्थपरवात् ।
[गीता में कृष्ण कहते हैं-] 'इस ज्ञान ( परमात्मा के ज्ञान ) को पाकर मनुष्य मेरे समान हो जाते हैं, वे सृष्टि होने पर भी उत्पन्न नहीं होते और प्रलय (विनाशकाल ) में भी दुःखों का अनुभव नहीं करते ।' (गीता० १४०२ ) [ इसमें मोक्ष के बाद भी भेद ही रहता है क्योंकि ज्ञान पाकर मनुष्य ईश्वर के समान हो जाता है। ईश्वर ही नहीं बन जाता । ] 'संसार के व्यापारों ( नियमन, सृष्टि आदि ) को छोड़कर [ मुक्त पुरुष सभी कार्य कर सकता है । ] क्योंकि जीव का प्रकरण ( प्रसंग ) इतना ही है, तथा जीवों को संसार के व्यापार से दूर रखा गया है ( उनमें वह सामर्थ्य नहीं है, ब्र० सू० ४।४।१७१८) इन-श्रुतिवाक्यों में भेद का ही वर्णन है । 'ब्रह्म को जाननेवाला ब्रह्म ही हो जाता है' (मु० ३।२।९) इस श्रुति के बल से ऐसी शंका न करें कि जीव ही परमेश्वर है क्योंकि इसमें केवल प्रशंसा की गयी है, ( तथ्य का निरूपण नहीं ) जैसा कि इस श्लोकार्ध में अर्थ है-'भक्ति से ब्राह्मण की पूजा करने पर शूद्र भी ब्राह्मण ही हो जाता है।' [ इसी प्रकार एकावस्था-प्रतिपादक श्रुति को अतिशयोक्तिपूर्ण मान लें।]
(८. माया का अर्थ-द्वैत का प्रतिपादन ) ननु१२. प्रपञ्चो यदि विद्येत निवर्तेत न संशयः। मायामात्रमिदं द्वैतमद्वतं परमार्थतः॥
( माण्डूक्यकारिका १११७ )