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सर्वदर्शनसंग्रह
को नहीं देख पाते । व्यवधान होने के कारण, दीवार ( कुड्य ) के बीच में आने पर कोई चीज दिखाई नहीं पड़ती । अभिभूत होने के कारण जैसे दिन में दीपक को प्रभा आदि को नहीं देख सकते । समान वस्तुओं में मिले होने के कारण, जैसे नीर-क्षीर में क्षीर का यथावत् प्रत्यक्ष नहीं होता है।
विशेष-सांख्यकारिका में यह कारिका प्रकृति की सिद्धि के क्रम में दी गई है। कहा गया है कि प्रत्यक्ष-प्रमाण से भी बहुत-सी वस्तुएं सिद्ध नहीं होती, क्योंकि उसके मार्ग में बहुत से बाधक कारण हैं-प्रकृति का प्रत्यक्ष सूक्ष्मता के कारण नहीं हो सकता । ऐसी बात नहीं है कि प्रकृति का अभाव है । उसी प्रकार समानाभिहार के कारण नीर-क्षीर का भेद मालूम नहीं पड़ता । ऐसी बात नहीं है कि भेद उनमें है ही नहीं। ‘स्वरूपग्रहणे भेदप्रतिभासोऽपि स्थादिति न भणनीयम्'। सामान्य दशा में ऐसा नहीं कहते कि नीर-क्षीर में स्वरूपग्रहण हो गया, भेद का प्रतिभास भी होगा। नहीं, भेद ग्रहण नहीं होता । पर यह तो हमारे सिद्धान्त के प्रतिकूल है कि स्वरूप से भेदज्ञान नहीं हो । नहीं, प्रतिकूलता तनिक भी नहीं है-वास्तव में भेद-ज्ञान है, पर नीर-क्षीर के मिश्रित होने के कारण नहीं प्रतीत होता। इसलिए यहाँ भेद-ज्ञान का ग्रहण आपाततः नहीं होता।
कभी-कभी एक ही वस्तु के कई स्वरूप होते हैं। मनुष्य को दूर से देखने पर कोई पदार्थ जान पड़ता है, उसके बाद ऊंचा पदार्थ, फिर प्राणी, फिर मनुष्य, फिर युवक आदि–इस प्रकार तारतम्य से नाना प्रकार के स्वरूप दिखलायी पड़ते हैं। इस प्रकार का तारतम्य धर्मभेदवादी ( वैशेषिक ) लोग भी स्वीकार करते हैं। स्वरूपभेदवादी के मत से यदि स्वरूप अनेक प्रकार के हैं तो भेद की भी अनेकरूपता स्वीकार करनी पड़ेगी। इसलिए जल-मिश्रित दूध में घड़े से भेद दिखाया जा सकता है, नीर से नहीं, क्योंकि उस प्रकार के स्वरूप का ज्ञान करने में हमारी आँखें असमर्थ हैं। अतएव नीर-क्षीर में विलक्षण स्वरूप का ज्ञान नहीं होता, उस प्रकार का भेदज्ञान भी नहीं होता, 'नीर से क्षीर भिन्न है' ऐसा ज्ञान भी नहीं होता—यही व्यवहार है।
(४. धर्मभेदवादी का समर्थन-भेद की सिद्धि ) भवतु वा धर्मभेदवादस्तथापि न कश्चिद्दोषः। धर्मिप्रतियोगिग्रहणे सति पश्चात्तद्घटितभेदग्रहणोपपत्तेः। न च परस्पराश्रयप्रसङ्गः । पराननपेक्ष्य प्रभेदशालिनो वस्तुनो ग्रहणे सति धर्मभेदभानसम्भवात् । न च धर्मभेदवादे तस्य तस्य भेदस्य भेदान्तरभेद्यत्वेनानवस्था दुरवस्था स्यादित्यास्थेयम् । भेदान्तरप्रसक्तो मूलाभावात् । भेदभेदिनौ भिन्नाविति व्यवहारादर्शनात् ।
[ मध्वाचार्य देखते हैं कि अपने ही पक्षवाले धर्मभेदवादी को चिढ़ाने से काम नहीं चलेगा। वह भी तो भेद को स्वीकार करता है। यह दूसरी बात है कि वह स्वरूप का भेद न मानकर धर्मों का भेद मानता है। अपने मत के प्रतिपादन के पश्चात् उस पर भी दो