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पूर्ण प्रज्ञ - दर्शनम्
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समान भ्रान्त ( मायामय ) कहते हैं । यह कहना वैसा ही है जैसे कोई केले के फलों की इच्छा से अपनी जीभ ही कटवा । [ इनमें कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं है। बल्कि जीभ कट जाने पर केले के फलों का कोई उपयोग ही नहीं है । उसी तरह ईश्वर को निर्गुण मानने पर उनसे मिलने का कोई उपयोग ही नहीं । ] ऐसे विष्णु भगवान् को अप्रसन्न करने पर [ उनसे एकाकार होने की घृष्टता करने से ] अन्धतमस ( नरक ) में ही प्रवेश करना पड़ेगा । इसका प्रतिपादन मध्यमन्दिर ( पूर्णप्रज्ञ ) ने अपने ग्रन्थ महाभारततात्पर्य- निर्णय में किया है- 'दैत्यगण विष्णु से अनादि काल से ( Fro रखते आ रहे हैं, विष्णु में भी उनके प्रति अत्यधिक द्वेष .. को अन्त में निश्चित रूप से निविड़ अन्धकार ( नरक ) में गिराते हैं ।' ( म० मा०
time immemorial ) द्वेष
रहा है । इसलिए वे देत्यों
ता० १।१११ )
विशेष – मध्यमन्दिर मध्यगेह के पुत्र थे । इन्हीं का नाम आनन्दतीर्थ था तथा पूर्णप्रज्ञाचार्य भी ये ही थे । इनका समय ११७० ई० है । इन्होंने द्वैतवाद के सिद्धान्तों के प्रतिपादन के लिए महाभारततालर्य-निर्णय नामक ग्रन्थ लिखा था जिसकी तीन टीकायें हुई - जनार्दन भट्टकृत ( १३२० ई० ), वादिराजकृत तथा विट्ठलसूनुकृत । महाभारततात्पर्यनिर्णय में ही ग्रन्थकार के विषय में लिखा है
आनन्दतीर्थाख्यमुनिः सुपूर्णप्रज्ञाभिधो ग्रन्थमिमं चकार ।
नारायणेनाभिहितो बदर्यां तस्यैव शिष्यो जगदेकभर्तुः ॥ ( ३२।१७० )
( ६. ईश्वर की सेवा के नियम )
सा च सेवा अङ्कन- नामकरण-भजनभेदात् त्रिविधा । तत्राङ्कनं नारायणायुधादीनां तद्रूपस्मरणार्थमपेक्षितार्थसिद्ध्यर्थं च । संहितापरिशिष्टम् -
तथा च शाकल्य
५. चक्रं बिर्भात पुरुषोऽभितप्तं बलं देवानाममृतस्य विष्णोः । स याति नाकं दुरितावधूय विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ॥ ६. देवासो येन विधूतेन बाहुना सुदर्शनेन प्रयातास्तमायन् । येनाङ्किता मनवो लोक सृष्टि वितन्वन्ति ब्राह्मणास्तद्वहन्ति ।।
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उस सेवा के तीन भेद हैं— अंकन ( Stigmatisation ), नामकरण ( Imposi - tion of names ) तथा भजन ( Worship ) ।
में अंकन वह है जिसमें भगवान् नारायण के रूप के स्मरण के लिए या अपेक्षित लक्ष्य (मुक्ति) की सिद्धि के लिए उनके आयुध ( अस्त्र-शस्त्र ) आदि का चिह्न [ शरीर के किसी भाग पर अंकित कर दिया जाय । ] शाकल्य संहिता ( ऋग्वेद का संहिता - विशेष ) के परिशिष्ट में ऐसी बात है - 'जो पुरुष देवताओं के बलस्वरूप अमर विष्णु के अभितप्त ( Burning ) चक्र को धारण करता है वह दुरितों ( पापों ) को
१५ स० [सं०