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सर्वदर्शनसंग्रहे
इस प्रकार के ब्रह्म को सिद्ध करने के लिए क्या प्रमाण है ? यदि यह पूछा जाय तो उसका उत्तर पहले से ही तैयार है कि शास्त्र ही ब्रह्म की सिद्धि के लिए प्रमाण हैंक्योंकि शास्त्र ही उस ( ब्रह्म की सिद्धि ) के लिए प्रमाण ( योनि ) हैं ( प्र० सू० १1१1३ ) | शास्त्र जिसको योनि अर्थात कारण या प्रमाण है वह ( ब्रह्म ) शास्त्रयोनि है । उसका भाव या तत्त्व ( शास्त्रयोनित्व ), इस कारण से -- [ शास्त्रयोनित्वात् ] । शास्त्र चूंकि ब्रह्मज्ञान का कारण है इसलिए वह ब्रह्म की योनि ( कारण ) कहलाता है । यही अर्थ हुआ ।
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न च ब्रह्मणः प्रमाणान्तरगम्यत्वं शङ्कितुं शक्यम् । अतीन्द्रियत्वेन प्रत्यक्षस्य तत्र प्रवृत्त्यनुपपत्तत्तेः । नापि महार्णवादिकं सकर्तृकं, कार्यत्वाद्, घटवदित्यनुमानम् । तस्य पूतिकूष्माण्डायमानत्वात् । तल्लक्षणं ब्रह्म 'यतो वा इमानि भूतानि' ( तै० २1१1१ ) इत्यादि वाक्यं प्रतिपादयतीति स्थितम् ।
ऐसी शंका भी नहीं की जा सकती कि ब्रह्म [ शास्त्र = आगम के अतिरिक्त ] किसी दूसरे प्रमाण से जाना जा सकता है । वह ( ब्रह्म ) इन्द्रियों की पहुँच के परे है इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण की तो वहाँ प्रवृति नहीं हो सकती । 'समुद्र आदि सकतृ' क ( Having a doer ) हैं क्योंकि ये कार्य हैं जैसे घट' इस प्रकार का अनुमान [ जैसा कि नैयायिक लोग ईश्वर की सिद्धि के लिए उपस्थित करते हैं ] भी नहीं हो सकता क्योंकि यह पूर्ति - कूष्माण्ड ( गले हुए कुम्हड़े ) की तरह [ दूर से ही त्याग करने योग्य ] है । इस प्रकार के लक्षणों से युक्त ब्रह्म का प्रतिपादन 'जिससे ये सब दृश्यमान पदार्थ निकले ( तै० २।१११ ) इत्यादि वाक्य करते हैं- यह सिद्ध हो गया ।
विशेष-पूर्ति का अर्थ 'गला हुआ' तथा एक लता - विशेष भी है। जिस प्रकार पूर्ति
से साध्य ( सकर्तृत्व ) की
कर रहा है, ऐसा नहीं
लता में कुम्हड़े का फल नहीं हो सकता उसी प्रकार उक्त हेतु सिद्धि नहीं हो सकती । समुद्र, पर्वत आदि का निर्माण कोई मिलता । इसलिए कार्यत्व - हेतु असिद्ध है। न तो इसे प्रत्यक्ष से ही जानते हैं न अनुमान से ही । इसके अलावे यदि पर्वत, समुद्र आदि को कार्य के रूप में स्वीकार करें तो भी यह नहीं प्रमाणित होता कि किसी एक ( कर्ता ) ने ही उन सबों का निर्माण किया है। जिससे एक ईश्वर को ही सबों का निर्माता सिद्ध करें। यह भी नहीं कह सकते कि जीवों में पर्वतादि निर्माण करने की सामर्थ्य नहीं है-बड़े-बड़े महर्षियों और देवताओं में सिद्धि के बल से ऐसी सामर्थ्य पाई गई है। इसके अतिरिक्त संसार का निर्माता ईश्वर शरीरधारी है कि शरीरहीन ? यदि शरीरहीन है तो कर्ता बन नहीं सकता क्योंकि ऐसा कोई प्रमाण नहीं है | शरीरधारी होने पर उसका शरीर नित्य होगा या अनित्य । यदि नित्य है तो अवयवों से युक्त वह ईश्वर नित्य होगा और संसार भी नित्य माना जायगा । जब संसार