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पूर्णप्रश-वर्शनम्
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अतः बुद्धि भी विरत हो जाने पर व्यापार ( Activity ) नहीं दिखला सकती । इसे हो साहित्यशास्त्रियोंने कहा है- शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराभावः । ( देखें, काव्यप्रदीप, उल्लास ५ । ) दूसरे, इसमें अन्योन्याश्रय दोष - Fallacy of mutual dependence, a logical seesaw ) भी उत्पन्न हो जायगा । [ भेद के ज्ञान के लिए धर्मी और प्रतियोगी का ज्ञान अपेक्षित है, तथा धर्मो और प्रतियोगी के ज्ञान के लिए भेदज्ञान की आवश्यकता है - इस प्रकार अन्योन्याश्रय - दोष होगा । ]
इसका दूसरा विकल्प भी ग्राह्य नहीं [ कि धर्मी, प्रतियोगी और भेद तीनों का ग्रहण एक साथ हो जायगा ] क्योंकि कार्य ( भेद-ज्ञान ) और कारण ( धर्मि - प्रतियोगि ज्ञान ) के रूप में गृहीत बुद्धियों की सत्ता एक साथ नहीं हो सकती । धर्मो की प्रतीति ( ज्ञान Apprehension ) भेद-ज्ञान का कारण है, उसी प्रकार प्रतियोगी की प्रतीति भी [ भेदज्ञान का कारण है ] । यदि धर्मो निकट में भी हो किन्तु दूरस्थित प्रतियोगी का ज्ञान नहीं हो तो भेद का ज्ञान नहीं ही हो सकेगा, [ उसी प्रकार धर्मी और प्रतियोगी दोनों के रहने पर भेद का ज्ञान हो जाता है ] — इसलिए अन्वय और व्यतिरेक के नियमों द्वारा हम लोग [ धर्मी + प्रतियोगी और भेद के बीच ] कार्य-कारण का सम्बन्ध जान लेते । [ कोई यह शंका न करे कि भेद और धर्मिप्रतियोगी में कार्य-कारण-सम्बन्ध कहाँ है, इसलिए पहले ही दिखला दिया गया है । ]
इस प्रकार भेद का प्रत्यक्षीकरण ( या प्रत्यक्ष प्रमाण से भेद का ज्ञान ) नहीं हो सकता - यह [ अद्वैतवेदान्ती की ] शंका है ।
( ३ क. प्रत्यक्ष से भेव सिद्धि - - समाधान )
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किं वस्तुस्वरूप भेदवादिनं प्रति इमानि दूषणानि उद्घष्यन्ते, किं वा धर्मभेदवादिनं प्रति ? प्रथमे चोरापराधान्माण्डव्यनिग्रहन्यायापातः । भवदभिधीयमानदूषणानां तदविषयत्वात् ।
ननु वस्तुस्वरूपस्यैव भवत्वे प्रतियोगिसापेक्षत्वं न घटते घटवत् । प्रतियोगिसापेक्ष एव सर्वत्र भेदः प्रथत इति चेन्न । प्रथमं सर्वतो विलक्षण तया वस्तुस्वरूपे ज्ञायमाने प्रतियोग्यपेक्षया विशिष्टव्यवहारोपपत्तेः ।
सारे दोष किसके सिर पर आरोपित हो रहे हैं ? क्या वस्तु ( घटादि ) के स्वरूप ( गोलाकार कम्बुग्रीव आदि ) को ही भेद माननेवाले लोगों के प्रति ( स्मरणीय है कि मध्वाचार्य इसे ही भेद कहते हैं ) या उन लोगों के प्रति जो वस्तु ( घटादि ) से भिन्न उस वस्तु के धर्मों को लेकर भेद मानते हैं (जैसा कि वैशेषिक दर्शन में मानते हैं ) ? [ मध्वाचार्य एक ही वस्तु में उसके स्वरूप और वस्तु में भेद मानते हैं जब कि वैशेषिकादि वस्तु के के धर्मों ( Attributes ) के आधार पर दो वस्तुओं में भेद मानते हैं । इन दोनों पक्षों को ही यहाँ पर उठाया गया है और पूर्वपक्षी से पूछा जा रहा है कि आप किस पक्ष पर अपने तर्कों का गट्ठर फेंक रहे हैं ? ]