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पूर्णप्रसनन्
२१७ रहेगी। [ घट के ज्ञान के लिए किसी प्रतियोगी की आवश्यकता नहीं रहती है, सीधे घट का ज्ञान कर लेते हैं। यदि वस्तु के स्वरूप ( Essence ) को भेद मान लें तो यह भेद भी घट की तरह ही प्रतियोगी-निरपेक्ष हो जायगा । ] किन्तु लोक में नियम से, सर्वत्र भेद-ज्ञान के लिए प्रतियोगी के ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है, [ यदि धर्म ( Attributes ) के आधार पर दो वस्तुओं में हम भेद नहीं मानेंगे तो ऐसी सम्भावना नहीं रहेगी-अतः स्वरूप को भेद मानना दोषपूर्ण है ] ।
उसका उत्तर [ मध्वों की ओर से ] होगा कि ऐसी बात नहीं है, पहले-पहल वस्तु के स्वरूप का ज्ञान दूसरी सभी वस्तुओं से पृथक् (विलक्षण Peculiar ) करके प्राप्त किया जाता है, तब प्रतियोगी की अपेक्षा रखते हुए विशेष प्रकार का ( जैसे घट का घटत्व के रूप में ) व्यवहार चलता है। [स्वरूप-भेदवादियों के मत से पहले, घट का घटत्व के रूप में, सबसे विलक्षण मानकर स्वरूप का ज्ञान होता है। इसी को भेद-ज्ञान कहते हैं । जो वस्तु सबों से विलक्षण है, उसके कम्बुग्रीवादि संस्थान-विशेषों से युक्त स्वरूप को भेद ही मानते हैं। तब प्रतियोगियों का अनुसन्धान करके 'घट-पट से भिन्न है' ऐसा व्यवहार करते हैं । ]
तथा हि-परिमाणघटितं वस्तुस्वरूपं प्रथममवगम्यते । पश्चात्प्रतियोगिविशेषापेक्षया ह्रस्वं दीर्घमिति तदेव विशिष्य व्यवहारभाजनं भवति । तदुक्तं विष्णुतत्त्वनिर्णये
'न च विशेषणविशेष्यतया भेदसिद्धिः। विशेषणविशेष्यभावश्च भेदापेक्षः । धर्मिप्रतियोग्यपेक्षया भेदसिद्धिः। भेदापेक्ष च धर्मिप्रतियोगित्वमित्यन्योन्याश्रयतया भेदस्यायुक्तिः। पदार्थस्वरूपत्वाद् भेदस्य'-इत्यादिना । ____ इसे यों समझें-परिमाण ( Dimensions ) से विशिष्ट वस्तु-स्वरूप का ज्ञान पहले हो जाता है। बाद में विभिन्न प्रकार के प्रतियोगियों की अपेक्षा रखकर उसी वस्तु को 'छोटा', 'बड़ा' इत्यादि विशेषणों से विभूषित करके उसका व्यवहार करते हैं। [ पहले किसी घट का परिमाण जान लेते हैं, यही उसका स्वरूप है और भेद भी है। फिर दूसरे घट का ज्ञान करके उसकी अपेक्षा प्रकृत घट को छोटा या बड़ा मानते हैं। स्वरूप का व्यवहार सामान्य है, दूसरे प्रतियोगी की अपेक्षा रखने पर विशिष्ट व्यवहार होता है। व्यवहार से अव्यवहित पूर्वक्षण में ही भेदज्ञान होने का नियम नहीं है। जब हम कहते हैं--'घटस्य स्वरूपम्' तो दोनों में भेद तो है ही। यहाँ तक कि 'घटः पटाद्भिलः' भी व्यधिकरण से व्यवहृत होता है और उसमें धर्म के भेद की सिद्धि नहीं होती। यह गौण व्यवहार है। यदि पदार्थ में स्वरूप-भेद नहीं होता तो उसके देखने पर सभी चीजों से उसकी विलक्षणता ज्ञात नहीं होती। पुनः यदि पदार्थ में स्वरूप-भेद नहीं होता तो गवय को देखने पर भी गाय खोजनेवालों की प्रवृत्ति होती और 'गो' शब्द का स्मरण होता,