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पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम्
तत्त्वद्वयं स्वपरतन्त्रमिहेति भेदो
जीवोऽणुरीश्वर इतो जगतो निमित्तम् । वेदान्तभाष्यमिति तत्र मतं विधात्रे
____ मध्वाय पूर्णधिषणाय नमश्चिराय ॥-ऋषिः । ( १. द्वैतवाद की रामानुजमत से समता और विषमता ) तदेतद्रामानुजमतं जीवाणुत्व-दासत्व-वेदापौरुषेयत्व-सिद्धार्थबोधकत्वस्वतःप्रमाणत्व-प्रमाणत्रित्व-पञ्चरात्रोपजीव्यत्व-प्रपञ्चभेदसप्यत्वादिसाम्येऽपि परस्परविरुद्धभेदादिपक्षत्रयकक्षीकारेण क्षपणकपक्षनिक्षिप्तमिप्युपेक्षमाणः 'स आत्मा तत्त्वमसि' (छा० ६१८७) इत्यादिवेदान्तवाक्यजातस्य मझ्यन्तरेणान्तरपरत्वमुपपाद्य ब्रह्ममीमांसाविवरणव्याजेन आनन्दतीर्थः प्रस्थानान्तरमास्थिषत। ___रामानुज के दर्शन में [ हमारे दर्शन = द्वैतवाद से ] इन बातों में समता है-जीव को अणु ( Atomic ) मानना, उसे ईश्वर का दास मानना, वेदों को अपौरुषेय (नित्य ) मानना, वेदों को सिद्ध वस्तु ( ब्रह्म ) का बोधक मानना, वेदों को अपने-आप में प्रमाण मानना (परतः प्रमाण नहीं मानना), तीन प्रमाण (प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द) मानना, पञ्चरात्र-ग्रन्थ पर अपने सिद्धान्तों को आधारित करना, प्रपञ्च और उसके भेदों ( आत्मा से आकाशादि की भिन्नता) को सत्य मानना इत्यादि । इतना होने पर भी परस्पर विरोधी ( Mutually contradictory ) भेद, [ अभेद तथा भेदाभेद के रूप में तीन पक्षों को स्वीकार करने से ( देखिये रामानुजदर्शन, अनु०१६) उक्त-दर्शन क्षपणको (जेनों ) के [सप्तभंगीनय की तरह विरोधी ] पक्षों को स्वीकार करने की मूर्खता करता है इसलिए उसकी अपेक्षा करते हैं । 'वह आत्मा है, वह तुम्हीं हो' ( छा० ६८७) इत्यादि वेदान्तवाक्यों में वे दूसरी भंगी (तात्पर्य ) से दूसरा ही अर्थ सिद्ध करते हैं । आनन्दतीर्थ (मध्वाचार्य, पूर्णप्रज्ञ) ने उक्त बातें दिखलाते हुए ब्रह्ममीमांसा (ब्रह्मसूत्र ) की व्याख्या (विवरण = व्याख्यानग्रन्थ का व्याख्यान ) करने के बहाने एक नवीन प्रस्थान ( सम्प्रदाय System of Philosphy ) ही प्रवर्तित कर दिया है।
विशेष-माधवाचार्य ने पूर्णप्रज्ञ-दर्शन का आरम्भ बहुत सुन्दर ढंग से किया है। बहुत ही संक्षेप में रामानुज और मध्व के सिद्धान्तों की तुलना हो गई। रामानुज का मत