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रामानुज- दर्शनम्
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नित्य ही है तो कार्य ( उत्पन्न ) कैसे होगा ? उसकी उत्पत्ति की क्या आवश्यकता ? वह तो सदा से है - इस प्रकार ईश्वर को सिद्धि नहीं होगी । यदि उसका शरीर अनित्य है तो किसने शरीर को उत्पन्न किया ? स्वयं ईश्वर ने ही किया तो भी ठीक नहीं, क्योंकि शरीरहीन वैसा नहीं कर सकता । यदि दूसरे शरीर से उत्पन्न किया तो फिर प्रश्न होगा कि उस शरीर को किसने उत्पन्न किया ? इस प्रकार अनवस्था होगी। इसके अतिरिक्त शरीर के अभाव में संसार का उत्पादनरूपी कोई भी व्यापार उससे सम्भव नहीं है । जब व्यापार नहीं तो, वह कर्ता कैसे बनेगा ?
इस पूरे विचार से सिद्ध हुआ कि ईश्वर की सिद्धि के लिए अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता । अन्य सभी प्रमाण निरस्त हैं, अतः आगम - प्रमाण से ही ब्रह्म को सिद्धि हो सकती है ।
( २४. चतुर्थ सूत्र - शास्त्रों का समन्वय )
यद्यपि ब्रह्म प्रमाणान्तरगोचरतां नावतरति तथापि प्रवृत्तिनिवृत्तिपरत्वाभावे सिद्धरूपं ब्रह्मन शास्त्रं प्रतिपादयितुं प्रभवतीत्येतत्पर्यनुयोगपरिहारायोक्तम्- ' तत्तु समन्वयात्' ( ब्र० सू० १।१।४ ) इति । तुशब्दः प्रसक्ताशङ्काव्यावृत्त्यर्थः । तच्छास्त्रप्रमाणकत्वं ब्रह्मणः सम्भवत्येव । कुतः समन्वयात् । परमपुरुषार्थभूतस्यैव ब्रह्मणोऽभिधेयतयान्वयादित्यर्थः ।
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यह शंका की जा सकती है कि यद्यपि ब्रह्म को दूसरे प्रमाणों से नहीं जाना जा सकता, फिर भी यदि शास्त्र प्रवृत्ति और निवृत्ति का संकेत न करे तो सिद्धब्रह्म का प्रतिपादन वह नहीं कर सकता । [ यदि शास्त्र सिद्ध ब्रह्म का प्रतिपादन करता है तो किसी का प्रवर्तक और निवर्तक वह नहीं हो सकता । इसलिए न तो वह सुख की प्राप्ति करा सकेगा, न दुःख की निवृति हो । बिना प्रयोजन के उसे कौन पढ़ेगा ? अतः शास्त्र अप्रामाणिक न हो, इसलिए उसे सिद्धब्रह्म का प्रतिपादक नहीं होना चाहिए । ] इसी शंका के परिहार के लिए कहा गया है—' उस ( शास्त्र - प्रमाण ) को तो समन्वय ( Reconciliation ) से [ समझते हैं ] ( ब्र० सू० १।११४) । यहाँ 'तु' ( तो ) शब्द प्राप्त शंका की निवृत्ति करने के लिए है । तत् = शास्त्र के द्वारा प्रामाणित होना, ब्रह्म के विषय में सम्भव है, पर कैसे ? समन्वय से अर्थात् परम पुरुषार्थस्वरूप ब्रह्म ही अभिधेय [ इन शास्त्रों में ] है, जिनके साथ उनका सम्बन्ध दिखाया गया है । [ प्रथम सूत्र में ब्रह्म का ही नाम लिया गया है, वही मनुष्यों का अन्तिम लक्ष्य है, यही उद्देश्य है, उसी का सम्बन्ध शास्त्रों के साथ दिखलाया गया है । इससे पता लगता है कि सिद्ध - ब्रह्म का प्रतिपादन करने पर भी शास्त्र प्रयोजन हैं ।]
न च प्रवृत्तिनिवृत्त्योरन्यतरविरहिणः प्रयोजनशून्यत्वम् । स्वरूपपरेष्वपि 'पुत्रस्ते जातो' 'नायं सर्पः' इत्यादिषु हर्षप्राप्तिभयनिवृत्तिरूपप्रयोजनवत्त्वं
१४ स० सं०