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रामानुज-दर्शनम्
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कह सकते हैं कि ] यह अज्ञान अनादि और भावात्मक ( Positive) है, तथा ज्ञान से हट जाता है; प्रत्यक्ष प्रमाण से ही यह सिद्ध है ( जैसा कि हम ऐसे वाक्यों में पाते हैं— ) 'मैं अज्ञानी हूँ, अपने आप को या किसी दूसरे को भी नहीं जानता हूँ ।' ऐसा ही कहा भी है'जो अनादि है, भावात्मक है, विज्ञान ( Knowledge ) से जिसका नाश होता है, वही अज्ञान है - विशेषज्ञ लोग इसका लक्षण इसी प्रकार करते हैं ।' ( चित्सुखी १1९ ) ।
विशेष - चित्सुखाचार्य ( १२२५ ई० ) के द्वारा लिखित चित्सुखी या प्रत्य तत्त्वदीपिका शांकरदर्शन का एक बहुमान्य ग्रन्थ है । इसकी टीका प्रत्यवस्वरूप ने प्रायः १५०० ई.. में मानसनयनप्रसादिनी के नाम से की थी । सर्वदर्शन संग्रह ( १३५० ई० ) में चित्सुखी का उद्धरण उसकी कीर्ति का सूचक है ।
म चैतन्नानाभावविवयमित्याशङ्कनीयम् । को ह्येवं ब्रूयात्प्रभाकरकरावलम्बी भट्टदत्तहस्तो वा ? नाद्यः
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३. स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके । वस्तुनि ज्ञायते किचित्कंचिद्रूपं कदाचन ।। F ४. भावान्तरमभावो हि कयाचित्तु व्यपेक्षया । भावान्तरावभावोऽन्यो न कश्चिदनिरूपणात् ॥ इति कयता माथम्यतिरिक्तस्याभावस्यानभ्युपगमात् ।
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[ अज्ञान के विषय में उपर्युक्त प्रत्यक्ष, मायावादियों के दृष्टिकोण से भावरूप (Positve ) अज्ञान का विषय है इसलिए उनके अनुसार ही यह कहा जाता है ] 'यह ( प्रत्यक्ष ) ज्ञान के अभाव का विषय है' —ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिए। ( इस प्रत्यक्ष को ज्ञान के अभाव का विषय ) माननेवाले कौन हैं ? या तो प्रभाकर गुरु' ( मीमांसा के एक सम्प्रदाय के प्रवर्तक ) का वरद कर पानेवाले ( = गुरु-मतानुयायी ) या कुमारिलभट्ट का सहारा पानेवाले ( भाट्टमीमांसक ) ऐसा कहेंगे ।
१. प्रभाकर को गुरु उपाधि मिलने के विषय में एक दन्तकथा है। एक बार इनके अध्यापक एक ग्रन्थ में यह पढ़कर परेशान थे -अत्र तुनोक्तं, तत्रापिनोक्तम् । परेशानी का कारण यह था कि दोनों स्थानों पर पदार्थ का कथन किया गया था जब कि ये पंक्तियाँ ठीक उल्टी बातें सूचित कर रही थीं । गुरु की परेशानी से प्रभाकर की बुद्धि जाग उठी और उन्होंने इन पंक्तियों को इस रूप में पढ़ा- अत्र तुना उक्तम् ( यहाँ 'तु' शब्द के द्वारा उल्लेख है ), तत्र अपिना उक्तम् ( वहाँ 'अपि' शब्द से उल्लेख है ) । स्मरणीय है कि पहले के ग्रन्थों में अक्षर सटा - सटाकर लिखे जाते थे, इसीलिए इस तरह की कठिनाई अध्यापक को हुई । गुरु ने कहा कि प्रभाकर, आज से तुम्हीं गुरु हो । यही कारण था कि प्रभाकर गुरु कहलाये । इन्होंने शबरभाष्य पर टीका लिखकर अपना सम्प्रदाय चलायाः ।