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सर्वदर्शनसंग्रहे
( Organs of sense and action ) के साथ-साथ है। उस ( ब्रह्माण्ड ) के अन्तर्गत देवता, पशु, मनुष्य, स्थावर ( Immobile things ) आदि सभी प्रकार के [ पदार्थ अपने-अपने ] संस्थानों ( Organs ) से युक्त होकर अवस्थित हैं । ये सब के सब कार्य के रूप में हैं, फिर भी ब्रह्म ही हैं [ क्योंकि ब्रह्म के शरीर से ही ये सब पदार्थ निकले हैं। मूल कारण भी ब्रह्म के शरीर से निकला है इसलिए प्रधान ( पुरुष ) सूक्ष्म शरीर का है, ब्रह्माण्ड स्थूल शरीर का । ] इसलिए कारणस्वरूप ब्रह्मात्मक ज्ञान से ही सबों का ज्ञान हो जाता है। एक को अच्छी तरह जानने से सभी का ज्ञान हो जाता है, यह और भी अच्छी तरह सिद्ध हो गया। [ कहने का अभिप्राय यह है कि संसार का कारण ब्रह्म सूक्ष्म शरीर में है, जब कि कार्यरूप संसार या ब्रह्माण्ड स्थूल शरीर में है। 'सूक्ष्म शरीर से विशिष्ट आत्मा' के ज्ञान के द्वारा 'स्थल शरीर से विशिष्ट आत्मा' का ज्ञान हो जाता है। यह बहुत ही मुकर है। जैसे किसी बालक को छोटे रूप में देखकर उसे ही युवावस्था में बड़े शरीर में भी जान लेते हैं कि यह वही बालक है। मिट्टी जिस प्रकार घटादि का उपादान कारण है उसी प्रकार यह सूक्ष्म शरीर भी स्थूल का है। इसमें दृष्टान्त (मिट्टी-घट ) और दान्तिक (मूक्ष्म शरीरादि ) में एक-एक अंश को लेकर साम्य है, जब कि शंकर की व्याख्या में विवर्त का आश्रय लेने से उतनी समता नहीं रहती । ब्रह्म और प्रपञ्च में वह सम्बन्ध नहीं जो मिट्टी और घटादि में है। इसलिए रामानुज का सिद्धान्त और अधिक सिद्ध---उपपन्नतर-है।] ___इतना ही नहीं, यदि [ शङ्कर की तरह ] ब्रह्म के अतिरिक्त सभी पदार्थों को मिथ्या मान लें तो सभी पदार्थों को असत् मानकर, एक के ज्ञान से सबों का ज्ञान होने की प्रतिज्ञा को छोड़ देना पड़ेगा। [ज्ञान-विज्ञान सत् ( Existent ) वस्तु का ही होता है, असत् का नहीं । खरहे का सींग आदि का विज्ञान सम्भव नहीं है । ]
नामरूपविभागानहसूक्ष्मदशावत्प्रकृतिपुरुषशरीरं ब्रह्म कारणावस्थम् । जगतस्तदापत्तिरेव प्रलयः। नामरूपविभागविभक्तस्थूलचिदचिद्वस्तुशरीरं ब्रह्मकार्यावस्थम् ब्रह्मणस्तथाविधस्थूलभावश्च सृष्टिरित्यभिधीयते । एवं च ___१. यथा सौम्यैकेन० की व्याख्या रामानुज ने जैसी की है, वह श्रुति का तात्त्विक अर्थ नहीं है । अक्षरों से वैसा व्य क नहीं होता । वे कारण के रूप में सूक्ष्मशरीरविशिष्ट आत्मा लेते हैं, कार्य के रूप में स्थूलशरीरविशिष्ट आत्मा लेते हैं । आत्मा को दोनों जगहों में रखने से उनका कुछ विशेष मतलब नहीं । तात्पर्य यही है कि सूक्ष्म शरीर के ज्ञान से उसके कार्य स्थल शरीर का ज्ञान होता है -कार्य और कारण एक होते हैं। श्रुतिवाक्य में ऐसा निर्देश नहीं है । कारण के रूप में ज्ञान का विषय आत्मा ही है, कार्य है जगत् । तो आत्मा के जान से जगत् का ज्ञान होता है, इतना ही कहना है । थिबॉट ने ठीक ही कहा है कि गमानज ब्रह्मगत्र के अधिक निकट हैं जब कि शङ्कर उपनिषदों के अधिक समीप हैं।