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रामानुज-सर्शनम्
१९१ में विषयों का संसर्ग शरीर धारण करके किया गया हो। वही जीव पूर्व शरीर में अनुभूत विषयों का अनुस्मरण करता है तथा उनकी इच्छा करता है। यही दो जन्मों की प्रतिसन्धि है। इस शरीर में पहले शरीर से, उसमें भी उसके पहले के शरीर से इस प्रकार अनादिकाल से चेतन आत्मा का सम्बन्ध शरीर से रहा है। इसलिए जीव की नित्यता सिद्ध होती है।]
जीव का अणु होना भी श्रुतिवाक्यों में प्रसिद्ध है-'यदि केश के अग्रभाग का सौवाँ भाग भी सौ भाग में बंटा हुआ माना जाय तो इस छोटे भाग की तरह ही जीव ( अणु ) है, यह जीव ही मोक्ष की प्राप्ति ( आनन्त्य Infinity ) में समर्थ है' ( श्वे० ५।९)। इसके अतिरिक्त भी कहा है-'पुरुष अरा ( Spoke of a wheel ) के अन्तिम खण्ड के आकार का है' ( श्वे० ५।८ ), आत्मा अणु है, इसे चित्त ( बुद्धि ) से हो समझ सकते हैं (मु० ३।१।९)।
(१६. ग. अचित् का निरूपण ) अचिच्छन्दवाच्यं दृश्यं जडं जगत्रिविधं भोग्य-भोगोपकरण-भोगायतनभेदात्।
'अचित्' शब्द से सामने दिखलाई पड़नेवाले जड़ जगत् का बोध होता है जिसके तीन भेद हैं-भोग्य ( विषय, जैसे शब्द आदि ), भोग का उपकरण (साधन, जैसे इन्द्रियाँ) और भोग का आयतन (स्थान, जैसे शरीर )। [ अचित् से रामानुज समूचे संसार का अर्थ लेते हैं जिसमें शरीर, इन्द्रियाँ और दृश्य पदार्थ, तीनों चले आते हैं । ]
( १७. ईश्वर का निरूपण-उनको पांच मूर्तियाँ ) तस्य जगतः कर्तोपादानं चेश्वरपदार्थः पुरुषोत्तमो वासुदेवादिपदवेदनीयः । तदप्युक्तम्१२. वासुदेवः परं ब्रह्म कल्याणगुणसंयुतः ।
भुवनानामुपादानं कर्ता जीवनियामकः ॥ इति । स एव वासुदेवः परमकारुणिको भक्तवत्सलः परमपुरुषस्तदुपासकानुगुणतत्तत्फलप्रदानाय स्वलीलावशादर्चा-विभव-व्यूह-सूक्ष्मान्तर्यामिभेदेन पञ्चधावतिष्ठते ।
उस [ स्थूल ] जगत् का रचयिता और उपादान कारण ( Material cause ) भी [प्रकृति के रूप में सूक्ष्मशरीरधारी ] पुरुषोत्तम (परमात्मा ) है जो ईश्वर शब्द का अर्थ है तथा जिसे वासुदेव आदि शब्दों के द्वारा जानते हैं। यह भी कहा गया है'कल्याणकारी गुणों से भरे हुए वासुदेव ही परमब्रह्म ( Supreme absolute ) हैं, वे भुवनों के उपादान कारण हैं, निर्माता हैं तथा जीवों के नियामक (Controller ) हैं।'
वे ही वासुदेव सबसे अधिक दयालु, भक्तों से वात्सल्य-प्रेम रखनेवाले तथा सर्वोच्च