________________
रामानुज-दर्शनम्
१९३
रहते हैं । संकर्षण का कार्य है - शास्त्र का प्रवर्तन करना और संहार । प्रद्य ुम्न धर्मप्रचार और सृष्टि करते हैं अनिरुद्ध तत्त्वनिरूपण और रक्षण के अधिकारी हैं । कभी-कभी आद्य व्यूह ( श्रीवासुदेव ) में छहों गुण देखकर दूसरे व्यूहों से अभेद बतलाकर तीन व्यूहों का ही प्रतिपादन किया जाता है । ]
1
( ४ ) सूक्ष्म - छहों गुणों से परिपूर्ण वासुदेव नाम के परब्रह्म को कहते हैं । गुणों से अभिप्राय है, जिसके पाप नष्ट हो गये हैं, इत्यादि । श्रुतिवाक्य भी है— 'वह ( परमात्मा ) पापरहित, जराहीन, मृत्युहीन शोकहीन, भूख से रहित तथा प्यास से रहित है, सत्य ही उसकी कामना है और सत्य ही सङ्कल ( Resolution ) भी है' ( छा० ८।७१३) । [ सूक्ष्म रूप में अवस्थित परमात्मा नारायण हैं, वैकुण्ठपुरी के निवासी हैं, दिव्यालय में महामणिमण्डप से युक्त सिंहासन में शेषनाग को पलङ्ग बनाकर बैठते हैं । दिव्य, कल्याणकारी विग्रह ( शरीर ) धारण करते हैं, लक्ष्मी के साथ हैं, चतुर्भुज होकर शङ्ख, चक्रादि दिव्य आयुधों से भरे हुए, अनन्त गरुड़ादि के द्वारा उपास्य हैं । मुक्त लो इन्हें प्राप्त करते हैं । ]
( ५ ) अन्तर्यामी - ये सभी जीवों का नियमन ( Control ) करते हैं । वेदवाक्य भी है – 'जो आत्मा में स्थित होकर नियन्त्रित करता है ।' ( बृ० मा० ३।७।२२ ) [ जीवात्मा के अवस्थित परमात्मा ही अन्तर्यामी है । योगी लोग इसे देख दोषों से बचा रहता है । यही अन्तःकरण या घट-घट का अन्तर्यामी परमात्मा है, जो सभी मनुष्यों को अच्छे-बुरे काम में प्रवृत्त और निवृत्त करता है । ]
ही आत्मा को मित्र के रूप में यद्यपि यह जीव
के साथ है पर जीव के
तत्र पूर्वपूर्वमूर्क्युपासनया पुरुषार्थपरिपन्थिदुरितनिचयक्षये सत्युत्तरोत्तरमूर्त्स्यपास्त्यधिकारः । तदुक्तम्
॥
१३. वासुदेवः स्वभक्तेषु वात्सल्यात्तत्तदोहितम् । अधिकार्यानुगुण्येन प्रयच्छति फलं बहु || १४. तदर्थं लीलया स्वीयाः पश्वमूर्तीः करोति वै । प्रतिमादिकमर्चा स्यादवतारास्तु वैभवाः ॥
भीतर से हृदय में पाते हैं ।
इनमें हरेक पहली मूर्ति की उपासना से पुरुषार्थ में बाधा पहुँचानेवाले पापों के समूह का विनाश हो जाता है, और तब भक्त को हर दूसरी मूर्ति की उपासना का अधिकार प्राप्त होता है । [ अर्चा के बाद ही विभव की उपासना हो सकती है और तब ही व्यूह कीइसी क्रम से उपासना का अधिकार प्राप्त होता है। एक-एक मूर्ति की उपासना से कुछ-नकुछ पाप कट ही जाते हैं । ]
यही कहा है - ' अपने भक्तों पर वात्सल्य प्रेम रखने के कारण, वासुदेव, अपने प्रत्येक भक्त की कामनाओं की पूर्ति अधिकारियों के गुण के आग्रह से करते हैं और बहुत फल
१३ स० सं०