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रामानुज-दर्शनम्
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है कि 'ब्रह्म' शब्द से उस पुरुषोत्तम का बोध हो जो सारे दोषों से रहित है, अवधिहीन ( Unlimited ) विशेषताओं से युक्त है तथा असंख्य कल्याणकारी गुणों से भरा है ।
इस प्रकार कर्मों का ज्ञान और उनके अनुष्ठान [ मन में कर्मों की ओर से ] वैराग्य उत्पन्न कर देते हैं तथा मन के सारे पापों का भी नाश कर देते हैं । इसलिए ब्रह्मज्ञान के लिए ये साधनस्वरूप हैं । फल यह हुआ कि कार्य ( ब्रह्मज्ञान ) और कारण ( कर्म और अनुष्ठान ) के रूप में इन दोनों पूर्व मीमांसा तथा उत्तर मीमांसा में एकशास्त्रता (संगति Continuity ) सिद्ध हो जाती है । [ दोनों का नाम मीमांसा हो है, एक पूर्व है, दूसरी उत्तर- इससे भी दोनों की एकशास्त्रता जानी जाती है । ] इसीलिए वृत्ति के रचयिता ( बोधायन) का कहना है कि षोडश अध्यायों ( जैमिनि के १२ अध्याय तथा संकर्षणकाण्ड के चार अध्याय = : १६ अध्याय ) में लिखे गये जैमिनि - रचित मीमांसासूत्र से यह शास्त्र एक ( मिला हुआ, एक = संयुक्त is one with ) है |
( १९. क. कर्म के साथ ब्रह्म का ज्ञान मोक्ष का साधन है )
कर्मफलस्य क्षयित्वं ब्रह्मज्ञानफलस्य चाक्षयित्वं 'परीक्ष्य लोकात्कर्मचितान्तान्ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन' ( मु० १।२।१२ ) इत्यादिश्रुतिभिरनुमानार्थापत्त्युपबृंहिताभिः प्रत्यपादि । एकैकानिन्दया कर्मविशिष्टस्य ज्ञानस्य मोक्षसाधनत्वं दर्शयति श्रुतिः२१. अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः ॥
( बृ० ४|४|१० तथा ई०९ ) २२. विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह । अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥ -
( ई० ११ ) इत्यादि ।
'कर्म से प्राप्त (स्वर्गादि) लोकों की परीक्षा करके ब्राह्मण वैराग्य प्राप्त कर ले क्योंकि अकृत ( नित्य Inartificial, genuine, परमात्मा ) की प्राप्ति कृत ( कर्म ) से नहीं होती' ( मुण्डक १।२।१२ ) । इस प्रकार की श्रुतियों की महत्ता अनुमान और अर्थापत्ति प्रमाणों से और भी बढ़ाकर इनके द्वारा कर्मों के फल को नश्वर और ब्रह्मज्ञान के फल को अक्षय दिखलाया गया है ।
एक-एक की ( केवल कर्म की या केवल ज्ञान की ) निन्दा करके कर्म से विशिष्ट ( युक्त ) ज्ञान को ही श्रुति मोक्ष का साधन बतलाती है - ' जो अविद्या ( ज्ञान से भिन्न, केवल कर्म ) की उपासना करते हैं वे लोग घनघोर अन्धकार ( नरक ) में प्रवेश करते हैं । जो केवल विद्या (ज्ञान) में रत हैं वे तो और भी घने अन्धकार पें पड़ते हैं ।' ( वृ० ४।४।१०, ई० ९ ) ' विद्या ( ज्ञान ) तथा अविद्या ( कर्म ) दोनों को साथ-साथ जो