________________
१९२
सर्वदर्शनसंग्रहे
पुरुष हैं, अपने उपासकों के गुण के अनुसार विभिन्न फल देने के लिए, अपनी लीला दिखलाते हुए वे अर्चा ( Adoration ), विभव ( Emanation ), व्यूह ( Manifes - tation ), सूक्ष्म ( The subtle ) तथा अन्तर्यामी ( Internal controller ) -- इन भेदों के कारण पाँच रूप में अवस्थित रहते हैं ।
तत्रार्चा नाम प्रतिमादयः । रामाद्यवतारो विभवः । व्यूहश्चतुविधो वासुदेवसङ्कर्षणप्रद्युम्नानिरुद्धसंज्ञकः । सूक्ष्मं सम्पूर्णषड्गुणं वासुदेवाख्यं परं ब्रह्म । गुणा अपहतपाप्मत्वादयः । 'सोऽपहतपाप्मा विजरो विमृत्युविशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः' ( छा० ८।७।३ ) इति श्रुतेः । अन्तर्यामी सकलजीवनियामक: 'य आत्मनि तिष्ठन्नात्मानमन्तरो यमयति' ( बृ० मा० ३।७।२२ ) इति श्रुतेः ।
( १ ) अर्चा - प्रतिमा आदि को कहते हैं । [ घर में या देव-मन्दिर में, चौराहे पर या खेत में देवता के रूप में पूजित - प्रतिष्ठित पत्थर, धातु आदि की मूर्तियों को अर्चा कहते हैं । यह भी ईश्वर का ही एक रूप है । इन प्रतिमाओं को सूक्ष्म और दिव्यशरीरयुक्त परमात्मा अपना शरीर बना लेता है । यहाँ ईश्वर अर्चक के अधीन स्नान, भोजन, यासन, शयन आदि भी करता है, यह सर्वसहिष्णु है । कहीं कहीं अर्चाएं स्वयं प्रकट होती हैं, कहीं देवताओं, मनुष्यों या सिद्ध पुरुषों के द्वारा स्थापित होती हैं । ]
( २ ) विभव - राम आदि के रूप में अवतार को कहते हैं । [ विभव दो तरह का होता है -- मुख्य और गोण । मुख्य विभव वह है जब परमात्मा स्वेच्छा से विशेष भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए साक्षात् प्रकट होते हैं । गौण विभव में आवेश के रूप में अवतार होता है । जीवाधिष्ठित शरीर में कोई विशेष कार्य सिद्ध करने के लिए परमात्मा अपने रूप से या शक्ति से प्रविष्ट हो जाता है । परशुराम आदि में स्वरूप से ही आवेश ( Entrance ) होता है । शक्ति के द्वारा आवेश विधि, शिव आदि चेतन रूपों में होता है । मत्स्य, कूर्म आदि दस अवतार विभव ही हैं । मुख्य विभवों की उपासना मोक्ष चाहनेवालों को करनी चाहिए, क्योंकि ये विभव दीप से जले दीप को तरह हैं । विधि, शिव, अग्नि, परशुराम, व्यास आदि गौण विभवों की पूजा भोगेच्छु लोग हं करें । ]
( ३ ) व्यूह - चार प्रकार का है, वासुदेव, संकीर्ण, प्रद्य ुम्न और अग्निरुद्ध । [ उपासना करने के लिए तथा संसार की सृष्टि आदि के लिए परमात्मा ही चार प्रकारों से अवस्थित है । ज्ञान, ऐश्वर्य आदि उपयुक्त छह गुणों से वासुदेव पूर्ण हैं । ज्ञान और बल से युक्त संकर्षण होने हैं । प्रद्य ुम्न - ऐश्वर्य और वीर्य से युक्त हैं और अनिरुद्ध में शक्ति तथा तेज है ( दे० अनु० १६ क. ) । स्मरणीय है कि संकर्षणादि में अपने दो गुणों के अतिरिक्त भी चारों गुण रहते हैं, पर वे अप्रकाशित हैं- दो गुण व्यक्त ' ( Patent )