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रामानुज - दर्शनम्
( १६. ख. जीव का वर्णन )
तत्र चिच्छन्दवाच्या जीवात्मानः परमात्मनः सकाशाद् भिन्ना नित्याश्च । तथा च श्रुतिः - 'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया' ( मु० ३|१|१, श्वे० ४।६ ) इत्यादिका । अत एवोक्तं 'नानात्मानो व्यवस्थातः ' ( वैशे० सू० ३।२।२० ) इति तन्नित्यत्वमपि श्रुतिप्रसिद्धम् -
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१०. न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ ( गीता २।२० ) इति ।
इनमें 'चित्' शब्द से ज्ञात जीवात्मा ( Individual spirits ) परमात्मा से भिन्न है और नित्य है | श्रुति भी ऐसा कहती है- 'दो पक्षी जो साथ रहते हैं और मित्र हैं........ ( मुण्डकोप ० ३ | १|१ तथा श्वेताश्वतरोप० ४।६ ) इत्यादि । इसीलिए [ कणाद ने भी वैशेषिक -सूत्र में ] कहा है- 'विभिन्न अवस्थाओं ( Conditions ) में रहने के कारण आत्मा नाना प्रकार की है । ' ( ३।२।२० ) । उस ( जीवात्मा की नित्यता भी श्रुतियों में प्रसिद्ध है - 'यह ज्ञानी आत्मा न तो उत्पन्न होती है, न मरती है; न यह उत्पन्न ही हुई थी और अब उत्पन्न होगी भी नहीं । यह अज ( न जन्म लेनेवाली ), नित्य ( न मरनेवाली ) शाश्वत ( जो कहीं से नहीं निकली -- नायं कुतश्चित् ) तथा पुरानी ( कभी उत्पन्न जो नहीं हुई - न बभूव कश्चित् ) है; शरीर के मारे जाने पर यह नहीं मारी जाती' ( गी० २ २०, तथा कुछ परिवर्तनों के साथ - नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् – कठो० २११८ ) ।
विशेष - 'द्वा सुपर्णा' का श्लोक सांख्य दर्शन का मूल है तथा भारतीय दर्शनों में महावाक्य के रूप में उद्धृत किया गया है। सुनते हैं कि नीलघाटी की खुदाई में इस श्लोक के भाव का एक चित्र भी प्राप्त हुआ है। पूरा श्लोक इस रूप में है
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्ति अनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति ॥
प्रथम चार पदों में 'सुपां सुलुक्०' ( पा० सू० ७|१|३९ ) से औ के स्थान में डा ( आ ) हो गया है । द्वौ सुपणों = जीव और ईश्वर, सुपर्ण का अर्थ पक्षी होता है जिसके सादृश्य के कारण यहाँ रूपकातिशयोक्ति अलङ्कार है । सयुजी = समान गुणवाले, सखायौ पाप नष्ट करना आदि गुणों के कारण ये आपस में समान हैं। वृक्ष = शरीर क्योंकि वह भी वृक्ष के समान काटा जाता है। ये दोनों जीव और ईश्वररूपी वृक्ष पर आश्रित हैं । उनमें एक (जीव ) सुस्वादु पीपल का फल खाता है ( कर्मफल का भोग करता है ), दूसरा ( ईश्वर ) बिना खाये हुए ( कर्मफल से असंपृक्त होकर ) ही देखता है ( प्रकाशित होता है ) । यहां वास्तविक विषय को निगलकर ( दबाकर ) सुपर्ण, वृक्ष आदि शब्दों
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