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रामानुजमार्शनम्
१६७ 'अहमशः' में अज्ञान की प्रतीति के समय ज्ञान यदि रहे तो अज्ञान की प्रतीति केसे हो सकेगी, अज्ञान कहाँ से रहेगा ? ] दूसरी ओर यदि आत्मा की प्रतीति नहीं होती, तो व्यावर्तक ( अज्ञान का व्यावर्तक है आत्मा, प्रतीति, बोध), आश्रय तथा विषय से शन्य होने से अज्ञान का अनुभव ही केसे होगा?
विशेष-अज्ञान ( मैं अज्ञ हूँ ) का विषय (Object ) आत्मा के स्वरूप का ज्ञान ही है; उसका आश्रय ( Substratum, object ) है आत्मा, क्योंकि आत्मा को प्रत्यक्ष रूप में यह अनुभव होता है कि मैं नहीं जानता हूँ। आत्मा ही अज्ञान का व्यावर्तक ( रोकने वाला, प्रतिषेधक ) है। यहाँ शांकरवेदान्तियों का दोष दिखलाया जा रहा है कि ध्यापक को ही बे अजान का विषय और आश्रय दोनों मान लेते हैं। ___ अब विशवः स्वरूपावभास एवाज्ञानविरोधी, नाज्ञानेन सह भासत इस्लामपियवनाने सत्यपि नाज्ञानानुभवविरोध इति-हन्त, तहि ज्ञानामाकेजपि समानमेतदन्यत्राभिनिवेशात् । तस्मादुभयाभ्युपगतज्ञानाभाव एव 'महाभानन्य च न जानामि' इत्यनुभवगोचर इत्यभ्युपगन्तव्यम् ।
(मायावादी यह कह सकते हैं कि ) आत्मा ( स्वरूप ) की जो प्रतीति ( अवभास ) सुट ( Manifested. ) है वही अज्ञान (माया ) का विरोध करती है। वह ( विशद मात्मप्रतीति ) अज्ञान के साथ नहीं रह सकती । इस प्रकार [ अज्ञान के ] आश्रय और विषय के होने पर [ आत्मा की प्रतीति स्फुट न होने से ] उसका विरोध अज्ञान ( अहमशः) के अनुभव के साथ नहीं होता ( तात्पर्य यही है कि अविशद आत्मप्रतीति अज्ञान का व्यावतंक नहीं हैं, विशद से ही ऐसी आशा की जाय)। रामानुज उत्तर में कहते हैं कि हाय, हाय, तब तो [ जो बात भावरूप अज्ञान मानकर आप कह रहे हैं ] वही बात ज्ञानाभाव का विषय मानने पर होगी ( कि आधार और विरोधी-इन दोनों में विशद स्वरूपावभास या आत्मप्रतीति विरोधी हो सकेगी, अविशद स्वरूपावभास नहीं।) हाँ, यदि आप पक्षपात ( अभिनिवेश ) न करें तभी ऐसा कहेंगे। [ मायावादी लोग भावरूप अज्ञान मानने में जो पक्षपात करते हैं वह हम लोगों में नहीं है । इस प्रकार दोनों पक्षों ( हमारे और आपके ) से सिद्ध ज्ञानाभाव ही-'मैं अश हूँ, अपने आपको और दूसरे को भी नहीं जानता' इस वाक्य में अनुभूत होता है ( is experienced )-ऐसा मानना चाहिए ।
विशेष-रामानुज अपने तर्क के बल से अद्वतियों को 'अज्ञान भावरूप नहीं, ज्ञानाभाव का विषय है' ऐसा स्वीकार कराते हैं । निष्कर्ष यह निकला कि अज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से बोध्य नहीं । अब अनुमान के अखाड़े में ले जाकर अज्ञान को पछाड़ने की युक्ति रची जा रही है । रामानुज ने अपने ब्र० सू० भाष्य के प्रथम सूत्र में अज्ञान का खण्डन बड़े जोरदार शब्दों में किया है । उसी से विषयवस्तु लेकर प्रस्तुत स्थल में प्रतिपादन किया जा रहा है।