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सर्वदर्शनसंग्रहे( ७. अज्ञान को भावरूप मानने में अनुमान और उसका बमन ) __ अस्तु तानुमानं मानं विवादास्पदं प्रमाणशानं स्वप्रागभावव्यतिरिक्तस्वविषयावरणस्वनिवर्त्य-स्वदेशगत-वस्त्वन्तर-पूर्वकम् । अप्रकाशितार्यप्रकाशकत्वादन्धकारे प्रथमोत्पन्नप्रदीपप्रभावत् इति ।
[ शांकर वेदान्ती कह सकते हैं कि ] प्रस्तुत विवाद से ग्रस्त ज्ञान (= अज्ञान भावरूप है ) को अनुमान से सिद्ध क्यों नहीं मानते ? अनुमान इस प्रकार हो सकता है
(१) [ अविद्या को ] प्रमाणित करनेवाला शान (पक्ष) किसी दूसरी वस्तु के बाद में होता है, जो वस्तु ज्ञान के प्राग्भाव से बिल्कुल भिन्न, ज्ञान के विषयों को ढंकनेवाली, ज्ञान के द्वारा हट जानेवाली, तथा जो ज्ञान के स्थान में अवस्थित रहती है ( साध्य)।
(२) कारण यह है-प्रमाण ज्ञान ( Right knowledge ) अप्रकाशित वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है ( हेतु)।
(३) जिस प्रकार अन्धकार में पहले-पहल उत्पन्न होनेवाली दीप की प्रभा होती है ( उदाहरण )।
विशेष-प्रथम वाक्य में 'वस्त्वन्तर' के कुछ विशेषण लगाये गये हैं । स्वविषयावरण = स्व अर्थात् प्रमाणज्ञान का विषय ब्रह्मादि है, उसके स्वरूप को ढंकनेवाला । स्वदेशगत प्रमाणज्ञान का देश आत्मा है, उसी में अवस्थित रहनेवाला । स्वप्राग्भावव्यतिरिक्त = प्रमाणज्ञान के प्राग्भाव से पृथक् । उपर्युक्त विशेषणों से युक्त अज्ञान भावरूप सिद्ध होता है। जो दीप प्रथम-प्रथम प्रकाश की किरणें फेलाता है उसी में अन्धकार को नष्ट करने की शक्ति होती है। जिस प्रकार अंधेरे में पहले-पहल जलाया गया दीपक अपनी प्रभा से अप्रकाशित वस्तुओं को प्रकाश में लाता है उसी प्रकार अंधेरे की तरह विद्यमान किसी दूसरी वस्तु ( अर्थात् अज्ञान ) को हटाकर प्रमाणज्ञान भी अप्रकाशित वस्तु ( आत्मस्वरूप ) को प्रकाश में ले आता है । जो वस्तु हटाई जाती है वही अज्ञान है, यह भावरूप है जिसकी व्यावृत्ति ज्ञान द्वारा ही होती है ।
तदपि न क्षोदक्षमम् । अज्ञानेऽप्यनभिमताज्ञानान्तरसाधनेऽपसिद्धान्तापातात् । तदसाधनेऽनकान्तिकत्वात् । दृष्टान्तस्य साधनविकलत्वाच्च । न हि प्रदीपप्रभाया अप्रकाशितार्थप्रकाशकत्वं सम्भवति । ज्ञानस्यैव प्रकाशकत्वात् । सत्यपि प्रदीपे ज्ञानेन विषयप्रकाशसम्भवात् । प्रदीपप्रभायास्तु चक्षुरिन्द्रियस्य ज्ञानं समुत्पादयतो विरोधिसन्तमंसनिरसनद्वारेणोपकारकत्वमात्रमेवेत्यलमति विस्तरेण ।
[ रामानुज का कहना है कि ] उपर्युक्त उक्ति भी तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतर सकनी ( शब्दशः, चक्की में पिसने से बच नहीं सकती; क्षोद = चूर्ण)। कारण यह