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सर्वदर्शनसंग्रहे
युक्त ( उसके आधार का ) उसके विरोधी ( भाव ) का ज्ञान हो । [ नेयायिकादि अभाव को प्रत्यक्ष हो मानते हैं । उपर्युक्त अनवस्था इसलिए नहीं लगती कि अन्तिम अनुव्यवसाय स्वयम् अज्ञात होकर भी वस्तु की सत्ता से ही अपने पहले के अनुव्यवसाय का ग्रहण कर लेगा । ज्ञान दो तरह के हैं--परगत और स्वगत । पूरा का पूरा परगत ज्ञान निविकल्प तथा स्वगत ज्ञान अतीन्द्रिय है । स्वगत सविकल्पक ज्ञान प्रत्यक्ष का विषय है । इसलिए इनके मतानुसार 'अहमज्ञः' यह प्रत्यक्ष अनुभव ज्ञानाभाव का विषय है—ऐसा कह सकते हैं । इस सम्प्रदाय से अद्वैतवेदान्ती पूछते हैं कि मैं अज्ञ हूँ ( मैं ज्ञानाभाव सम्पन्न हूँ ) इस अनुशव में ज्ञानाभाव को आधार मानने के कारण 'अहम्' अर्थवाली आत्मा का ज्ञान होता है। कि नहीं ? उसी अनुभव में ज्ञानाभाव का विरोधी होने के कारण ज्ञान का ज्ञान होता है कि नहीं ? यदि होता है तो ज्ञान की सत्ता माननी पड़ेगी; ज्ञानाभाव कहाँ है और कहाँ है उसका अनुभव ? यदि नहीं है तो ज्ञानाभाव रहने पर भी इसका अनुभव नहीं होगा, क्योंकि अभाव का ज्ञान तभी सम्भव है जब अभाव के आधार का ज्ञान हो, अभाव के प्रतियोगी का ज्ञान हो । घट का बिना ज्ञान हुए घटाभाव जानना असम्भव है । ]
अब यदि उस अज्ञान को भावरूप ( Positive ) स्वीकार कर लें, तो उपर्युक्त दोषों से मुक्ति मिल जाती है । अतएव यह अनुभव भावरूप अज्ञान से ही उत्पन्न होता है - ऐसा मानना चाहिए । ( इस प्रकार मायावादियों का पूर्वपक्ष समाप्त हुआ । )
( ६. रामानुज द्वारा इसका खण्डन )
तदेतद्गगन रोमन्थायितम् । भावरूपस्याज्ञानस्य ज्ञानाभावेन समानयोगक्षेमत्वात् । तथाहि - विषयत्वेनाश्रयत्वेन चाज्ञानस्य व्यावर्तक तया प्रत्यगर्थः प्रतिपन्नो न वा ? प्रतिपन्नश्चेत्, स्वरूपज्ञाननिवत्यं तदज्ञानमिति तस्मिन्प्रतिपन्ने कथङ्कारमवतिष्ठते ? अप्रतिपन्नश्चेत्, व्यावर्तकाश्रयविषयशुन्यमज्ञानं कथमनुभूयेत ?
[ मायावादियों के द्वारा अज्ञान को भावरूप मानने के लिए तर्क देना ठीक वैसा ही असम्भव है जैसा कोई पशु ] आकाश का पीगुर ( जुगाली, चर्वितचर्वण, regrazitating ) करे ! भाव के रूप में अज्ञान को मानना ज्ञानाभाव के रूप में मानने के ही बराबर है । इसमें दो विकल्प हो सकते हैं - [ अज्ञान के ] विषय ( आत्मा के स्वरूप का ज्ञान ) तथा आश्रय ( = आत्मा ) के रूप में, अज्ञान की व्यावर्तक बनकर, उस ज्ञानस्वरूप आत्मा की प्रतीति होती है कि नहीं ? ( 'मैं अज्ञ हूँ' इस अज्ञान की प्रतीति के समय उस ज्ञानस्वरूप आत्मा की प्रतीति होती है कि नहीं ? ) यदि प्रतीति होती है तो 'स्वरूप के ज्ञान से निवृत्त होनेवाला ( ज्ञान का विरोधी ) वह अज्ञान है' - इसलिए उस ( ज्ञान ) की प्रतीति होने पर ज्ञान किसी प्रकार नहीं रह सकता । [ चूंकि अज्ञान आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जान जाने पर हट जाता है इसलिए स्वरूप के ज्ञान के बाद अज्ञान ठहरेगा ही नहीं ।