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सर्वदर्शनसंग्रहे
ननु', अंश, रूप', आदि शब्दों से यह सिद्ध होता है कि इस रूप में ( पृथक न रहकर सिद्ध होनेवाला ) यह समूचा संसार (प्रपंच ) उस विश्वमूर्ति ( विष्णु ) का ही है ( विष्णु से पृथक् यह जगत् सिद्ध नहीं होता ) । इसे नहीं समझने के कारण मूर्ख लोग ईश्वर से जगत् को पृथक् समझने की मूर्खता ( मोह ) करते हैं । [शानी लोग प्रपंच को सदैव ईश्वर से अपृथक् ही सिद्ध समझकर अपने व्यवहार चलाते हैं। जिस प्रकार श्रोत्र, घ्राण आदि इन्द्रियों के द्वारा शब्द गन्ध आदि गुणों का ग्रहण ( Apprehension ), अपने आश्रयों ( आकाश, पृथिवी आदि ) से पृथक् होकर ही होता है [ क्योंकि इन्द्रियाँ आश्रय को ग्रहण नहीं कर सकतीं, अत: धर्मों का ज्ञान अकेला ही होता है ], उसी प्रकार अदृश्य जीवात्मा में भी [ ईश्वर का ग्रहण करने में असमर्थ लोग ] अपनी नंगी आंखों से केवल शरीर का ग्रहण करते हैं, किसी अन्य पदार्थ ( जीव ) का ग्रहण नहीं कर पाते । [इन्द्रियाँ केवल गुणों का ग्रहण कर सकती हैं, उनके आधार का नहीं । केवल बाह्येन्द्रियों का सहारा लेनेवाले मूर्ख लोग भी केवल शरीर का ग्रहण कर सकते हैं, जीव से विशिष्ट ( अपृथक सिद्ध ) शरीर का नहीं । आँखों से जीव के दर्शन नहीं हो सकते ।]
उपर्युक्त दोनों श्लोकों में संसार को परमात्मा से अपृथक् सिद्ध किया गया है। अब संसार के वाचक शब्दों का 'पार्थक्य' ( निष्कर्ष ) अर्थ न होने के कारण परमात्मा ही अर्थ है, यह बतलाया जा रहा हैनिकीकूतहानौ विमतिपदपदान्यन्तरात्मानमेकं
तन्मूर्तेर्वाचकत्वादभिदधति यथा रामकृष्णादिशब्दाः । सर्वेषामाप्तमुख्यैरगणि च वचसां शाश्वतेऽस्मिन्प्रतिष्ठा
पाकस्तस्याप्रतीतेजगति तदितरैः स्याच्च भङ्क्त्वा प्रयोगः । जहाँ [ जीव और शरीर में ] पार्थक्य रखने का अभिप्राय नहीं है, वहाँ विवादास्पद (विमतिपद ) शब्द भी एकमात्र 'अन्तरात्मा' अर्थ का बोध कराते हैं, क्योंकि सारे शब्द
१. उदाहरण-तत्सर्वं वै हरेस्तनु: ( वि० पु० १।२२।३७ ) । २. ममैवांशो जीवलोके ( भ० गी० १५१७ )। ३. द्वे रूपे ब्रह्मणस्तस्य (वि० पु० १२२॥५३ )।
४. आदि से शक्ति, काय, शरीर आदि का ग्रहण होता है-विष्णुशक्तिः परा प्रोक्ता ( वि० पु० ६।७।६), यदम्बु वैष्णवः कायः (वि० पु० २।१२।३७ ) यस्यात्मा शरीरम् (६० उ० ३।७।२२ ) इत्यादि ।
५. कहीं-कहीं जीवात्मा और शरीर में अपृथक्-सिद्धि हो जाने पर भी पार्थक प्रति पादन होने के कारण पार्थक्य अर्थ अभीष्ट होता है, जैसे—यह जीवात्मा का शरीर है । यहाँ शरीर का अर्थ जीवात्मा-पर्यत नहीं होगा, केवल शरीर का ही यहाँ अर्थ है। 'यस्य