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रामानुज-वर्शनम्
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उस (ईश्वर) की मूर्ति ( Body ) के ही वाचक हैं। राम, कृष्ण आदि शब्द भी ऐसे ही हैं [ जिनसे परमात्मा के अर्थ का बोध होता है ] । आप्त ( प्रामाणिक ) लोगों में प्रधानों (महर्षियों) ने इसी शाश्वत ब्रह्म में सारे शब्दों की अवस्थिति मानी है । [ यह अवस्थिति वाच्यार्थ के ही रूप में है, दूसरी किसी शक्ति की आवश्यकता नहीं है । एक ऐसी ही उक्ति भी है- 'नताः स्म सर्ववचसां प्रतिष्ठा यत्र शाश्वती ।' ] पाकों ( अज्ञानियों, डिम्भों ) के द्वारा उसकी प्रतीति नहीं होती, उनके साथ संसार में व्यवहार करनेवाले दूसरे ( विद्वान् ) लोग भी तोड़कर ( लक्षणा से ) शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में ( लौकिक वस्तुओं के अर्थ में ) करते हैं । वाच्यार्थ तो शब्दों का परमात्मा ही है, लक्ष्यार्थ में सारी वस्तुएं हैं क्योंकि इसी अर्थ में जीव और शरीर की पृथक् सिद्धि होती है, गौण अर्थ ( Secondary meaning ) का सहारा लिया जाता है । ] ( १३. निर्विशेष ब्रह्म की अप्रामाणिकता )
किं च सर्वप्रमाणस्य सविशेषविषयतया निर्विशेषवस्तुनि न किमपि प्रमाणं समस्ति । निर्विकल्पक प्रत्यक्षेऽपि सविशेषमेव वस्तु प्रतीयते । अन्यथा सविकल्प के सोऽयमिति पूर्वप्रतिपन्नप्रकारविशिष्टप्रतीत्यनुपपत्तेः ।
इसके अतिरिक्त, चूँकि सभी प्रमाणों का विषय ( Object ) सविशेष ( Determinate, रूपादि से युक्त ) पदार्थ हुआ करता है, इसलिए निर्विशेष ( आकार - प्रकारहीन ) वस्तु की सिद्धि के लिए कोई प्रमाण सङ्गत नहीं हो सकता। यही नहीं, निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ( Indeterminate perception ) में भी सविशेष ( आकार-प्रकार से युक्त ) ही वस्तु की प्रतीति होती है [ न कि नैयायिकों के अनुसार निर्विशेष वस्तु की ] । नहीं तो सविकल्पक प्रत्यक्ष ( Determinate perception ) में 'यह वही है' इस वाक्य में पहले से प्रतिपादित वस्तु के आकार-प्रकार आदि की विशेषताएं नहीं जानी जा सकतीं । [ जब तक हम पहले से वस्तु के आकार-प्रकार नहीं जानेंगे तो कैसे कह सकते हैं कि यह वही वस्तु है | अतः निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में वस्तु की विशेषताएँ अवश्य ज्ञात होनी चाहिए । ]
विशेष- रामानुज का निर्विकल्पक और सविकल्पक नैयायिकों से कुछ भिन्न है, इसीलिए वे इस प्रकार की पंक्तियाँ लिख रहे हैं । नैयायिक लोग निर्विकल्पक को निष्प्रकारक ज्ञान समझते हैं जिसमें वस्तु की सत्ता ही ज्ञात रहती है। जैसे - इदं किंचित् । रामानुज निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की परिभाषा यों करते हैं – एकजातीयद्रव्येषु प्रथमपिण्डग्रहणम् अर्थात् एक प्रकार की वस्तुओं में प्रथम पिण्ड का ग्रहण करना । देवदत्त जब पहले पृथिवी शरीरम्' यहाँ भी पृथिवी शब्द इसी प्रकार का है, इससे परमात्मा तक अर्थ नहीं हो सकता । जहाँ ऐसी विवक्षा नहीं है वहां तो प्रत्येक शब्द परमात्मा तक का वाचक हो सकता है ।