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सर्वदर्शनसंग्रहे
( फिर अज्ञान का आरोपण ज्ञानस्वरूप आत्मा पर केसे करते हैं ? उत्तर में हम कहेंगे कि अनुभव करना अनुभव करनेवाली आत्मा का एक धर्म है जो ( धर्म ) केवल अपनी सत्तासे, किसी वस्तु में व्यवहार की योग्यता ( आनुगुष्य) उत्पन्न करने का स्वभाव रहता है; जिस ( अनुभूति ) के ज्ञान, अवगति, संविद (बोध) आदि बहुत से नाम हैं. तथा जो ( धर्म ) कर्म करनेवाला भी है । अनुभव करनेवाले को आत्मा और आत्मा की वृत्तियों (Actions ) में स्थित एक गुण को ज्ञान कहते हैं ।
ननु ज्ञानरूपस्यात्मनः कथं -ज्ञानगुणकत्वमिति चेत्, तवसारम् । यथा हि मणिद्युमणिप्रभृति तेजोद्रव्यं प्रभावद्रूपेणावतिष्ठमानं प्रभारूपगुणाश्रयः । स्वाश्रयादन्यत्रापि वर्तमानत्वेन रूपवत्त्वेन च प्रभा द्रव्यरूपाऽपि तच्छेषत्वनिबन्धन गुणव्यवहारा । एवमयमात्मा स्वप्रकाशचिद्रूप एव चैतन्यगुणः ।
यहाँ कुछ लोग शंका कर सकते हैं कि ज्ञान तो आत्मा का स्वरूप ( Essence ) है, फिर ज्ञान उसका गुण कैसे होगा ? इस पर रामानुज का कथन है कि यह शंका ठीक नहीं । [ रामानुज जीवात्मा और परमात्मा दोनों को ज्ञानस्वरूप मानते हैं, फिर ज्ञान उनका गुण भी है, ऐसा स्वीकार करते हैं । यह उपन्यास ( Establishment ) आपत्तिजनक है, क्योंकि स्वरूप गुण नहीं हो सकता । किन्तु जिस श्रुति -प्रमाण से आत्मा को ज्ञानरूप मानते हैं, उसी प्रमाण से आत्मा का गुण ज्ञान है, यह भी जानते हैं । स्वरूप गुण हो सकता है, क्योंकि स्वरूपवाले ज्ञान से गुणवाले ज्ञान को पृथक् माना जाता है । इसमें दृष्टान्त भी है - ] जिस प्रकार मणि, सूर्य इत्यादि तेजस ( Luminary) पदार्थ स्वयं प्रभा से युक्त स्वरूप से अवस्थित हैं, किन्तु प्रभारूपी गुण के आश्रय स्थान भी हैं। ( अर्थात् सूर्यादि तेज के स्वरूप में होकर भी तेज के एक प्रकार – प्रभा-गुण से भरे हैं । स्वरूप ही गुण भी है ) |
अपने आश्रय से पृथक् होकर भी रहने पर तथा उसमें रूप ( Mode of things ) होने के कारण द्रव्य के रूप में रहने पर भी, प्रभा ( Light ) को गुण के रूप में पुकारते हैं क्योंकि वह सूर्यादि के तेज का उपकारी होने का सौभाग्य रखती है । [ गुण किसी वस्तु में व्याप्य अथवा अव्याप्य वृत्ति धारण करके रहता है । आकाश में शब्द उसके एक देश में ही रहता है अतः अव्याप्य वृत्तिवाला है, घट में रूप चारों ओर से रहता है अतः व्याप्य वृत्तिवाला है । प्रभा नित्य रूप से सूर्य -सम्बद्ध है, फिर भी सूर्य के अतिरिक्त समुद्र, पर्वत, भूमि आदि में देखी जाती है— इसलिए वह गुण नहीं है। दूसरे प्रभा में शुक्ल- रूप रहता है जिससे इसे द्रव्य मानना पड़ता है । गुण नहीं रह सकता, द्रव्य में गुण रहता है, अतः प्रभा द्रव्य है । फिर प्रभा को गुण कैसे करती है, गुण भी द्रव्य में रहते हैं, गुणों के सादृश्य से
?
चूंकि सूर्यादि तेजों में यह निवास
प्रभा को गुण मानते हैं किन्तु यह
व्यवहार गौण है, मुख्य रूप से तो प्रभा द्रव्य ही है ।
]
ठीक इसी प्रकार, इस आत्मा का
कहेंगे