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आर्हत-वर्शनम्
४७. घटोऽस्तीति न वक्तव्यं सन्नेव हि यतो घटः ।
नास्तीत्यपि न वक्तव्यं विरोधात् सदसत्त्वयोः ।। इत्यादि ॥
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इसके अलावे पूछना चाहिए कि वस्तु की अपनी प्रकृति क्या है, सत् होना या असत् होना ? ऐसा नहीं कह सकते कि अस्तित्व ( Is-ness ) ही वस्तु का स्वभाव है, क्योंकि 'घटः अस्ति ( घड़ा है )' इस वाक्य में 'घट:' ( = वस्तु का अस्तित्व ) और 'अस्ति' ( प्रत्यक्षरूप से अस्तित्व ) इन दोनों शब्दों का एक साथ इसलिए प्रयोग नहीं हो सकता कि पर्यायवाची हो जायेंगे । यदि [ घट: ] नास्ति = 'घड़ा नहीं है' ऐसा कहें तो प्रयोग में असिद्ध होगा । [ आशय यह है कि घट का अर्थ सत् या असत् दोनों में से कोई एक ही है; यदि सत् अर्थ है तो 'सत् ( = घटः ) आस्ति' कहने में पुनरुक्ति होती है । यदि असत् अर्थ है तो 'असत् ( घट: ) अस्ति' कहना अव्यावहारिक है । ] इसी प्रकार दूसरे स्थानों में भी समझें। जैसा कि कहा है;
" घड़ा है, ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि 'घट' में सत् का बोध हो ही जाता है; 'नहीं है' ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि [ 'घटो नास्ति' इस वाक्य में ] सत् ( घटः ) और असत् के साथ रहने से विरोध होगा ।"
तस्मादित्थं वक्तव्यम् - सदसत्सदसदनिर्वचनीयवादभेदेन प्रतिवादिनश्र्चतुविधाः । पुनरप्यनिर्वचनीयमतेन मिश्रितानि सदसदादिमतानीति त्रिविधाः । तान्प्रति किं वस्त्वस्तीत्यादि पर्यनुयोगे 'कथञ्चित्तदस्ति' इत्यादि प्रतिवचनसम्भवेन ते वादिनः सर्वे निर्विण्णाः सन्तस्तूष्णीमासत इति सम्पूर्णार्यविनिश्वायिनः स्याद्वादमङ्गीकुर्वतस्तत्र तत्र विजय इति सर्वमुपपन्नम् । यदवोचदाचार्यः स्याद्वादमञ्जर्याम्
४८. अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम् । एकदेशविशिष्टोऽर्थो नयस्य विषयो मतः ॥
४९. न्यायानामेकनिष्ठानां प्रवृत्तौ श्रुतवर्त्मनि । सम्पूर्णार्थविनिश्वापि स्याद्वस्तु श्रुतमुच्यते ।। इति ॥
इसलिए ऐसा कहे - सत्, असत्, सदसत् और अनिर्वचनीय सिद्धान्तों (वादों) को मानने के कारण विरोधियों के चार प्रकार हैं । फिर, अनिर्वचनीय- सिद्धान्त के साथ सत्, असत् आदि [ पूर्वोक्त तीन ] मतों को मिला देने से उनके तीन और भी प्रकार होते हैं । जब पूछें कि वस्तु क्या है, तब 'किसी प्रकार वह है' इत्यादि प्रत्युत्तर देना सम्भव है इसलिए वे विरोधी-वादी लोग सबके सब शान्त हो जाते हैं और वस्तु के सभी पक्षों पर विचार करके 'स्याद्वाद' को स्वीकार करनेवाले की उन सभी जगहों में विजय होती है, यह पूर्णरूप से सिद्ध हो गया ।
स्याद्वादमंजरी में आचार्य ( मल्लिपेण १२९२ ई० ) ने कहा है 'सभी जानों (अस्ति, नास्ति आदि ) का विषय बनानेवाला पदार्थ अनेकान्तात्मक ( अनिश्चित ) है किन्तु नय