________________
१५०
सर्वदर्शनसंग्रहेजायगा। ] किन्तु यदि 'स्यात्' को अनेकान्त ( अनिश्चय ) का बोधक मानें तो 'स्यादस्ति' का अर्थ 'कथंचित् अस्ति' ( किसी प्रकार है ) होता है जिसमें 'स्यात्' का अर्थ 'कथंचित्' (किसी प्रकार ) लेते हैं और निरर्थकता नहीं रहती। ('स्यात्' का अर्थ कुछ हो जाता है, बेकार इसका प्रयोग नहीं है। अतः ‘स्यात्' की सार्थकता इसकी अनेकान्तबोधकता पर है)। ___ कहा है-'स्याद्वाद' का सिद्धान्त सब प्रकार से एकान्त ( निश्चय करनेवाले ) सिद्धान्तों को छोड़ देने पर, 'किम्' शब्द से निष्पन्न (= कथम् / किम् ) शब्द में 'चित्' शब्द का विधान करने पर ( 'कथंचित्' अर्थ धारण करके ), सप्तभङ्गीनय की अपेक्षा रखकर हेय ( त्याज्य ) और आदेय ( ग्राह्य = अस्ति+नास्ति ) रूपी विशेषों से युक्त होता है।' [ त्याज्य = नास्ति, ग्राह्य = अस्ति, ये दोनों विकल्प तभी सम्भव हैं जब वस्तु का स्वरूप अनिश्चित हो । इसे अब और स्पष्ट करेंगे-]
यदि वस्त्वस्त्येकान्ततः सर्वथा सर्वदा सर्वत्र सर्वात्मनास्तीति नोपादित्साजिहासाभ्यां क्वचित्कदाचित्केनचित्प्रवर्तेत निवर्तेत वा । प्राप्ताप्रापणीयत्वादहेयहानानुपपत्तेश्च । अनेकान्तपक्षे तु कथञ्चित्क्वचित्केनचित्सत्त्वेन हानोपादाने प्रेक्षावतामुपपद्यते । ____यदि वस्तु एकान्त या निश्चित रूप से है ( अनेकान्त नहीं है ), तब सब प्रकार से, सदा के लिए, सब जगह, सब लोगों के साथ है; तब तो ग्रहण या त्याग करने की इच्छा से कहीं, कभी या कोई न प्रवृत्त ही होगा और न निवृत्त होगा [ क्योंकि वस्तु सबों के साथ है पाने को क्या जरूरत ? या फिर छोड़ना कैसे ? अतः सभी दृष्टिकोणों से हम 'अस्ति' नहीं कह सकते-एक दृष्टिकोण से कह सकते हैं कि यहाँ वस्तु है, पर 'वस्तु है' कहने का अर्थ होगा कि यह सर्वत्र, सर्वदा, सर्वथा और सर्वात्मना है। ] प्राप्त वस्तु प्रापणीय ( पाने योग्य ) नहीं हो सकती तथा अहेय वस्तु की हानि भी सम्भव नहीं। [ जो वस्तु पहले से नहीं मिली है वही प्राप्य हो सकती है, प्राप्त वस्तु प्राप्य क्या होगी ? उसी प्रकार जो वस्तु त्याज्य है उसी का त्याग भी होता है, अत्याज्य का नहीं । सर्वत्र, सर्वथा 'अस्ति' माने जाने पर त्याग और ग्रहण का प्रश्न ही नहीं उठ सकता।]
किन्तु यदि अनेकान्तपक्ष मानें तो किसी प्रकार (किसी दृष्टिकोण से ) कहीं, किसी जीव के द्वारा त्याग और ग्रहण होगा-ऐसा विद्वान् समझ सकते हैं। [ जब वस्तु सदा नहीं है, एक ही दशा में है तो उसका त्याग और ग्रहण सम्भव है-एक समय में त्याग, दूसरे में ग्रहण ]।
किं च वस्तुनः सत्त्वं स्वभावः, असत्त्वं वा इत्यादि प्रष्टव्यम् । न तावदस्तित्वं वस्तुनः स्वभाव इति समस्ति। घटोऽस्तीत्यनयोः पर्यायतया युगपत्प्रयोगायोगात् । नास्तीति प्रयोगविरोधाच्च । एवमन्यत्रापि योज्यम् । यथोक्तम् -