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सर्वदर्शनसंग्रहेसे उसका विरोध होता है। अतः दोनों प्रकार (विधि-निषेध ) के परामर्श इसमें लगेंगे। पटने में वसन्त ऋतु में विद्यमान लाल रेशमी साड़ी का उदाहरण लें। द्रव्यतः वह रेशमी रूप में है, सूती में नहीं । देशत: पटने में है, गया आदि में नहीं । कालन: वसन्त ऋतु में है, शीत में नहीं। वर्णतः लाल रंग में है, पीले आदि में नहीं । अपने द्रव्यादि रूप में है, परकीय में नहीं। इसलिए एक ही साथ विधि और निषेध दोनों होते हैं जो अनिश्चयावस्था ( अनेकान्तवाद ) की सूचना देते हैं । एकान्तवाद का अर्थ है । निश्चय अनेकान्तवाद में किसी वस्तु की सत्ता या असत्ता का निश्चय नहीं रहता।
जैनों के अलावे सभी एकान्तवादी हैं जो अपने मत को निश्चयात्मक मानते हैं। वे सात प्रकार के हैं, इसका - भंग करने से भी जैनन्याय सप्तभङ्गन्याय कहलाता है। (१) सत्कार्यवादी सांख्य लोग पदार्थों की सदा ही सत्ता मानते हैं। (२) शून्यवादी बौद्ध ( माध्यमिक ) पदार्थों की असत्ता ही स्वीकार करते हैं। ( ३ ) असत्कार्यवादी नैयायिक लोग उत्पत्ति के पूर्व पदार्थ का अभाव, उत्पत्ति होने पर भाव तथा नाश होने पर पुनः अभाव मानते हैं। ये कालभेद से सत्ता और असत्ता स्वीकार करते हैं, जैनों की तरह एक ही साथ नहीं। ( ४ ) संसार को माया का उपादान माननेवाले शांकरवेदान्ती पदार्थों की अनिर्वचनीयता ( Indescribability ) मानते हैं । माया से उत्पन्न वस्तुएं प्रतीतिकाल में भी नहीं हैं' इस रूप में बाद में बाधित हो जाती हैं । सत्त्व की अवस्था में ही पदार्थ असत् हैं। न तो अस्तित्व है न नास्तित्व-अतः दो विरोधियों का वर्णन कठिन होने से अवाच्यता सिद्ध है । (५) कुछ माया को माननेवाले ही वेदान्ती सांख्योक्त पदार्थों की सत्ता स्वीकार करके भी माया से संसार की अनिर्वाच्यता मानते हैं । ( ६ ) कुछ मायावेदान्ती शून्यवादोक्त पदार्थों का नास्तित्व मानकर भी मायाकृत अनिर्वाच्यता स्वीकार करते हैं। (७) अन्त में कुछ वेदान्ती नैयायिक आदि के प्रतिपादित सत्त्वासत्त्व के साथ मायिक अनिर्वाच्यता मानते हैं। ___ ये सातों एकान्तवादी वस्तु का एकपक्षीय विचार ग्रहण करते हैं, जैन इनमें 'स्यात्' शब्द लगाते हैं । सांख्यों का कहना कि 'घट है'-ठीक है, पर यह निश्चित सत्य नहीं हैइसमें स्यात् किसी ( किसी प्रकार ) लगाने पर ठीक विचार संभव है। जैनों की दृष्टि बहुत उदार है जिससे वे प्रत्येक मत का 'स्यात्' लगाकर स्वागत करते हैं ।
तत्सर्वमनन्तवीर्यः प्रत्यपीपदत्४१. तद्विधानविवक्षायां स्यादस्तीति गतिर्भवेत् ।
स्यानास्तीति प्रयोगः स्यात्तनिषेधे विवक्षिते ॥ ४२. क्रमेणोभयवाञ्छार्या प्रयोगः समुदायभाक् ।
युगपत्तद्विवक्षायां स्यादवाच्यमशक्तितः ॥