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आर्हत-दर्शनम्
( २६. जैनमत-संग्रह ) जिनदत्तसूरिणा जैनं मतमित्थमुक्तम्५१. बलभोगोपभोगानामुभयोदनलाभयोः अन्तरायस्तथा निद्रा भीरज्ञानं जुगुप्सितम् || ५२. हिंसा रत्यरती रागद्वेषावविरतिः स्मरः । शोको मिथ्यात्वमेतेऽष्टादश दोषा न यस्य सः ॥ ५३. जिनो देवो गुरुः सम्यक्तत्त्वज्ञानोपदेशकः । ज्ञानदर्शनचारित्राण्यपवर्गस्य वर्तनी ॥
जिनदत्त सूरि ( ग्रन्थ - विवेकविकास, समय - १२२० ई० ) ने जैन-मत [ का सारांश ] इस प्रकार व्यक्त किया है— 'बल, भोग, उपभोग ( इन्द्रियसुख ), दान तथा लाभ के अन्तराय (१-५), निद्रा ( ६ ), भय ( ७ ), अज्ञान ( ८ ), घृणा ( ९ ), हिंसा (१०),
(१४ ), अविरति
( इच्छा ११ ), अरति ( अनिच्छा १२ ), राग ( १३ ), द्वेष ( वैराग्यहीनता १५ ), काम (१६), शोक ( १७ ) तथा मिथ्यात्व ( १८ ) – ये अठारह दोष जिनके पास नहीं हैं, वह देवतास्वरूप हम लोगों का जिन ( जितेन्द्रिय ) गुरु सम्यक्रूप से तत्त्वज्ञान का उपदेशक है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र – ये अपवर्ग के मार्ग हैं । [ ज्ञान = संमोहरहित ज्ञान, दर्शन = अर्हन्मुनि के उपदिष्ट मत में विश्वास, चारित्र पापकर्म से विरति । वर्तनी = मार्ग । ]
५४. स्याद्वादस्य प्रमाणे द्वे प्रत्यक्षमनुमापि च । नित्यानित्यात्मकं सर्वं नव तत्त्वानि सप्त वा ॥ ५५. जीवाजीवौ पुण्यपापे चास्रवः संवरोऽपि च ।
बन्धो निर्जरणं मुक्तिरेषां व्याख्याऽधुनोच्यते ॥ ५६. चेतनालक्षणो जीवः स्यादजीवस्तदन्यकः । सत्कर्मपुद्गलाः पुण्यं पापं तस्य विपर्ययः ॥
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'स्याद्वाद के सिद्धान्त में दो प्रमाण हैं - प्रत्यक्ष और अनुमान । [ उपर्युक्त विधि से वस्तु को प्रत्यक्षतः भी अनेक रूप का देखते हैं, दूसरे उपादान और त्याग करने की इच्छा के उद्देश्य से किसी पदार्थ के प्रति जो लोगों में प्रवृत्ति और निवृत्ति दिखलाई पड़ती है, यही हेतु बनकर अनुमान द्वारा सिद्ध करेगी कि वस्तुए नित्य और अनित्य के रूप में हैं [ इसमे भी स्याद्वाद लगाकर स्यान्नित्यः स्यादनित्यः, आदि वाक्य बनेंगे । ] तत्त्व नव या सात हैं ( विभिन्न मतों से ) ॥ ५४ ॥ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, बन्ध, निर्जरण और मुक्ति - अब इनकी व्याख्या की जाती है । [ इन नवों में पुण्य को संवर में तथा पाप को आस्रव में ले लेने पर सात ही तत्त्व बचते हैं । ] चेतना ( Intelligence ) जीव का लक्षण है, उससे भिन्न ( अचेतन ) अजीव होता है । अच्छे काम से उत्पन्न होनेवाले पुद्गल ( Matter, bodies) पुण्य हैं, उसका उलटा पाप ( = बुरे काम से उत्पन्न पुद्गल ) ।।