________________
आहेत-दर्शनम्
१४५ यथा हस्तदण्डादिभ्रमिप्रेरितं कुलालचक्रमुपरतेऽपि तस्मिस्तद्वलादेवासंस्कारक्षये भ्रमति, तथा भवस्थेनात्मनापवर्गप्राप्तये बहुशो यत्कृतं प्रणिधानं मुक्तस्य तदभावेऽपि पूर्वसंस्कारादालोकान्तं गमनमुपपद्यते । यथा वा मृत्तिकालेपकृतगौरवमलाबुद्रव्यं जलेऽधः पतति, पुनरपेतमृत्तिकाबन्धमूर्ध्वं गच्छति, तथा कर्मरहित आत्मा असङ्गत्वादूर्ध्वं गच्छति । बन्धच्छेदादेरण्डबीजवच्चोध्वं गतिस्वभावाच्चाग्निशिखावत् । ___ जैसे हाथ और डण्डे से गोलाकार घुमाया गया कुम्भकार का चाक ( चक्र ) [ घमानेवाले हाथ और डण्डे की क्रिया ] बन्द हो जाने पर भी, उसके बल से ही, संस्कार ( Momentum ) क्षीण न होने के कारण, घमता ही जाता है, उसी प्रकार संसार में स्थित ( बद्ध अवस्था में ) आत्मा ने अपवर्ग ( मोक्ष, Liberation ) की प्राप्ति के लिए कई बार जो योग ( प्रणिधान ) किया था, अब मुक्त हो जाने पर उस ( प्रणिधान ) के अभाव में भी पहले संस्कार से लोक के ऊपर तक चली जाती है-यह सिद्ध होता है। अथवा जैसे मिट्टी का लेप करके भारी बनाया गया लौकी का तुम्बा ( सूखी खोखली लौकी Dry hollow gourd which the ascetics use ) पानी में नीचे गिरता जाता है, लेकिन जब [ पानी में भीगने से ] मिट्टी का बन्धन छूट जाता है तब ऊपर चला आता है-उसी प्रकार कर्म से रहित होकर आत्मा बिना किसी संग के कारण ऊपर जाती है । बन्धन का नाश होने से रेड के बीज की तरह [ जैसे रेंड के बीज का कोष छूट जाने पर वह ऊपर छिटक जाता है ? ] या अग्निशिखा की तरह अपनी ऊर्ध्वगामिनी प्रकृति के कारण [ आत्मा ऊपर जाती है ] । ___ अन्योन्यं प्रदेशानुप्रवेशे सत्यविभागेनावस्थानं बन्धः। परस्परप्राप्तिमात्रं सङ्गः। तदुक्तं, पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्वन्धच्छेदात्तथा गतिपरिणामाच्च ( त० सू० १०६) । आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ( त० सू० १०१७ ) इति । अत एव पठन्ति
४०. गत्वा गत्वा निवर्तन्ते चन्द्रसूर्यादयो ग्रहाः। ___अद्यापि न निवर्तन्ते त्वलोकाकाशमागताः ॥ (प. न. ) इतिः॥
परस्पर एक दूसरे के प्रदेश में ( = आत्मा और शरीर द्वारा ) प्रवेश करने पर अविभक्त ( Undistinguished ) रूप से रहना बन्ध है। एक दूसरे का केवल सम्पर्क होना संग है। यह कहा है-पूर्व ( संस्कार ) के प्रयोग से संग न होने से, बन्ध का नाश हो जाने से तथा अपनी गति के प्रस्फुटन से [ आत्मा की गति ऊपर की ओर होती है ], भ्रमण का संस्कार पाये हुए ( आबिद्ध ) कुम्हार के चक्के की तरह, लेप छूट जाने से लौकी की तरह, रेंड के बीज की तरह तथा अग्नि की शिखा की तरह [ यह गति होती है ]-( त० सू० १०।६-७ )। इसलिए [ आचार्य पद्मनन्दी ] पढ़ते हैं
१० स० सं०