________________
आहेत-दर्शनम्
१४३ ३४. द्विचत्वारिंशता भिक्षादोनित्यमदूषितम् ।
मुनिर्यदन्नमादत्ते सैषणासमितिर्मता ॥ ३५. आसनादीनि संवीक्ष्य प्रतिलध्य च यत्नता।
गृह्णीयानिक्षिपेद् ध्यायेत्सादानसमितिः स्मृतः ॥ ६६. कफमूत्रमलप्रायनिर्जन्तुजगतीतले
यत्नाद्यदुत्सृजेत्साधुः सोत्सर्गसमितिर्भवेत् ।। अतएव
आस्रवः स्रोतसो द्वारं संवृणोतीति संवरः । इति निराहुः।
'भिक्षा के बयालीस दोषों से नित्य रूप से अदूषित ( मुक्त) अन्न को मुनि लेता है, वही एषणासमिति कहलाती है ( ३४ ) । आसन आदि को अच्छी तरह देखकर यलपूर्वक उस पर बैठकर ग्रहण करना, रखना तथा ध्यान करना यह आदानसमिति कही जाती है ( ३५ ) । जन्तु से रहित पृथ्वी पर यत्नपूर्वक ( सावधानी से ) कफ, मल, मूत्र, प्राय ( नासिकामल ) को जो साधु छोड़ता है, वही उत्सर्ग समिति है ( ३६ ) । इसलिए-आस्रव स्रोत ( Pipe ) का दरवाजा है, उसे जो ढंक देता है ( सम् Vवृ) वही संवर है।' इस प्रकार निर्वचन ( Etymology ) दिया गया है।
तदुक्तमभियुक्त:३७. आस्रवो भवहेतुः स्यात्संवरो मोक्षकारणम् ।
इतीयमाहती सृष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ॥ जैसा कि विद्वानों ने कहा है-'संसार में आने का कारण आस्रव है और मोक्ष का कारण है संवर; यही जैनों के सिद्धान्त का संक्षेप ( सृष्टि = सार ) है, शेष बातें इसी का विस्तार (प्रपंच ) मात्र हैं।
( २३ क. निर्जरा) अजितस्य कर्मणस्तपःप्रभृतिभिनिर्जरणं निर्जराख्यं तत्त्वम्। चिरकालप्रवृत्तकषायकलापं पुण्यं सुखदुःखे च देहेन जरयति नाशयति। केशोल्लुञ्चनादिकं तप उच्यते । सा निर्जरा द्विविधा यथाकालोपक्रमिकभेदात् । तत्र प्रथमा यस्मिन्काले यत्कर्म फलप्रदत्वेनाभिमतं तस्मिन्नेव काले फलदानाद् भवन्ती निर्जरा कामादिपाकजेति च जेगीयते । यत्कर्म तपोबलात्स्वकामनयोदयावलि प्रवेश्य प्रपद्यते सौपक्रमिकनिर्जरा । यदाह३८. संसारबीजभूतानां कर्मणां जरणादिह ।
निर्जरा सम्मता द्वधा सकामाकामनिर्जरा ॥ ३९. स्मृता सकामा यमिनामकामा त्वन्यदेहिनाम् ॥ इति ।