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आर्हत-दर्शनम्
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पञ्चेन्द्रिय ( कर्ण भी ) – मनुष्य, पशु, पक्षी आदि । स्थावर जीवों के भेद अब बतलावेंगे । स्मरणीय है कि समनस्क केवल त्रस ही होते हैं, उनमें भी पाँच इन्द्रियोंवाले ही ।
तत्र मार्गगतधूलि : पृथिवी । इष्टकादिः पृथिवीकायः । पृथिवी कायत्वेन येन गृहीता सः पृथिवीकायिकः । पृथिवीं कायत्वेन यो ग्रहीष्यति स पृथिवी जीवः । एवमबादिष्वपि भेदचतुष्टयं योज्यम् । तत्र पृथिव्यादि कायत्वेन गृहीतवन्तो ग्रहीष्यन्तश्च स्थावरा गृह्यन्ते न पृथिव्यादिपृथिवीकायादयः । तेषामजीवत्वात् । ते च स्थावराः स्पर्शनै केन्द्रियाः । भवान्तरप्राप्तिविधुरा मुक्ताः ।
[ यहाँ पर एक विभाजन करें - ] मार्ग की धूलि पृथिवी है, ईंट आदि ( पाषाण भी ) पृथिवीकाय हैं ( क्योंकि ये मरे हुए आदमी के काय की तरह स्थित हैं ) । पृथिवी को कांय के रूप में जिसने ग्रहण कर लिया वह पृथिवीकायिक है, पृथिवी को काय के रूप में जो ग्रहण करेगा वह पृथिवीजीव है । इसी प्रकार जल ( अप् = आप: ) आदि मैं भी बार-बार भेद कर लें । पृथिवी आदि को काय के रूप में जिन्होंने ग्रहण कर लिया है या जो ग्रहण करेंगे, वे जीव ही स्थावर जीव हैं ( अर्थात् पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजःकायिक आदि और पृथिवीजीव, अब्जीव, तेजोजीव आदि ही जीव --स्थावर जीवहैं ) । पृथिवीं ( अप, तेज ) आदि तथा पृथिवीकाय ( अप्काय, तेजः काय ) आदि स्थावर - जीव नहीं है, क्योंकि इनमें जीव ही नहीं है । [ अभिप्राय यह है कि पहले दोनों वर्ग स्थावर जीव में नहीं आते । स्थावर जीव कहने से पिछले दोनों वर्गों (कायिक जीव ) काही ग्रहण होता है । ]
इन सभी स्थावर जीवों की एक ही इन्द्रिय — केवल स्पर्शन होती है। मुक्त जीव वे हैं, जो दूसरा जन्म नहीं पाते । [ इस प्रकार संसारी और मुक्त का वर्णन करके जीवतत्त्व का वर्णन समाप्त हुआ । ]
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धर्माधर्माकाशास्तिकायाः ते एकत्वशालिनो निष्क्रियाश्च द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतवः । तत्र धर्माधमौ प्रसिद्धौ । आलोकेनावच्छिन्ने नभसि लोकाकाशपदवेदनीये तयोः सर्वत्रावस्थितिः । गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः । अतएव धर्मास्तिकायः प्रवृत्त्यनुमेयः । अधर्मास्तिकायः स्थित्यनुमेयः । अन्यवस्तुप्रदेशमध्येऽन्यस्य वस्तुनः प्रवेशोऽवगाहः । तदाकाशकृत्यम् ।
धर्म, अधर्म और आकाश के अस्तिकाय एकत्व से युक्त ( एक भेदवाले ) हैं, क्रियाहीन हैं, द्रव्य को दूसरे स्थान में ले जानेवाले हैं । धर्म और अधर्म तो प्रसिद्ध ही हैं । आलोक ( प्रकाश ) से व्याप्त आकाश में, जिसे 'लोकाकाश' शब्द से समझते हैं, वहाँ उन दोनों की अवस्थिति सर्वत्र है । क्रमशः गति और स्थिति के ग्रहण से धर्म और अधर्म का उपकार