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सर्वदर्शनसंग्रहै
( Conventionally ) इससे 'कार्मण' शब्द से समझते हैं । लोहे के पिण्ड में अग्नि के परमाणु प्रवेश करते हैं उसी तरह तेजस और कार्मण वज्र आदि में भी प्रवेश कर जाते हैं । इन शरीरों ( पाँचों) में सूक्ष्मता एक से अधिक है लेकिन व्यापकता भी वैसी ही अधिक है ।
कायादि = काय, मन, वचन | आत्मा के स्थान का चलना ( देशान्तर गमन ) 'योग' कहलाता है । यह तीन प्रकार का है क्योंकि कर्म ( जिससे यह उत्पन्न होता है ) तीन प्रकार का ही है-मानसिक, वाचिक और कायिक। तो, योग के ये भेद हैं- मनोयोग, वाग्योग और काययोग । मन के परिणाम की ओर अभिमुख आत्मा के प्रदेश ( स्थान ) का चलना मनोयोग है । वचन के परिणाम की ओर अभिमुख आत्मा के प्रदेश का चलना वाग्योग है । शरीर के चलने से आत्मा के प्रदेश का चलना काययोग है । ये योग ही आस्रव हैं ।
आत्म-प्रदेश का संचालन एक प्रकार से नली का छेद हैं जिससे होकर बाहर से कर्म के पुद्गल आत्मा के प्रदेश के बीच चले आते हैं ।
यथार्द्रं वस्त्रं समन्ताद्वातानीतं रेणुजातमुपादत्ते, तथा कषायजलार्द्र आत्मा योगानीतं कर्म सर्वप्रदेशैर्गृह्णाति । यथा वा निष्टप्तायःपिण्डो जले क्षिप्तोऽम्भः समन्ताद् गृह्णाति तथा कषायोष्णो जीवो योगानीतं कर्म समन्तादादत्ते । कर्षाति हिनस्ति आत्मानं कुगतिप्रापणादिति कषायः, क्रोधो मानो माया लोभश्च ।
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[ आस्रव के और भी दृष्टान्त देते हैं- ] जिस प्रकार भींगा कपड़ा चारों ओर से हवा द्वारा लाई गई धूलि के समूह को पकड़ लेता है उसी प्रकार कषायरूपी जल से भींगी हुई आत्मा योग के द्वारा लाये गये कर्म को सभी स्थानों से ग्रहण करती है । अथवा जिस प्रकार खूब गर्म किया गया लोहे का टुकड़ा पानी में डाले जाने पर चारों ओर से पानी खींचता है, उसी प्रकार कषाय से उष्ण जीव योग के द्वारा लाये कर्म को चारों ओर से खींच लेता है ।
[ कपाय का निर्वचन - ] जो कषण करे = आत्मा को बुरी अवस्था में ले जाकर उसका हनन करे, वह कषाय है । ( कष् ) जैसे - क्रोध, मान ( अहंकार ), माया ( Delusion ) और लोभ ।
सः द्विविधः शुभाशुभभेदात् । अत्राहिंसादिः शुभः काययोगः । सत्यं - मितहितभाषणादिः शुभो वाग्योगः । अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय साधुनामधेयपञ्चपरमेष्ठिभक्तितपोरुचिश्रुतविनयादिः शुभो मनोयोगः । एतद्विपरीतस्त्वशुभ: त्रिविधो योगः ।