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सर्वदर्शनसंग्रहेतभेदं च समगृह्णात्पञ्च-नव-द्वयष्टाविंशति-चतुर्द्विचत्वारिंशद्-द्वि-पञ्चभेदा यथाक्रमम् ( त० सू० ८१५) इति । एतच्च सर्व विद्यानन्दादिभिविवृतमिति विस्तरभयान्न प्रस्तूयते ।
[मोहनीय कर्म दर्शन और चरित्र दोनों में मोह उत्पन्न करता है। ] दर्शन में मोहनीय-कर्म का स्वभाव है तत्त्वार्थ में अश्रद्धा उत्पन्न कर देना, जैसे दुष्टों के संग से होता है । चारित्र में मोहनीय का स्वभाव है असंयम उत्पन्न करना, जैसा मदिरा का नशा (मद) से होता है। आयु- कर्म शारीरिक बन्धन में डालता है, जैसे जल [ तैरने में शरीर को धारण करता है उसी प्रकार आयुकर्म भी देहधारण करता है । ] नाम-कर्म से विभिन्न नाम उत्पन्न होते हैं, जैसे चित्रकार [विभिन्न चित्र बनाता है। गोत्र-कर्म से ऊंचा (वंश) और नीचा की भावना आती है, जिस तरह कुम्भकार [ घड़े में ऊंचा और नीचा स्थान बनाता है। ] अन्तराय-कर्म का स्वभाव है दानादि के कामों में विघ्न डालना, जिस प्रकार कोषाध्यक्ष [ राजा को मितव्ययिता का पाठ पढ़ाकर दानादि से रोकता है ]
इस प्रकार यह प्रकृति बन्धन आठ तरह का है, इसे मूल-प्रकृति भी कहते हैं तथा द्रव्यों के [ धर्म और अधर्म नामक ] कर्मों के अनुसार इसमें अन्तर भेद ( Sub-divisons ) होते हैं । ऐसा ही उमास्वातिवाचकाचार्य ने कहा भी है-पहले बन्ध ( प्रकृति बन्ध ) में ज्ञानावरण, दर्शनावरण वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा अन्तराय-ये भेद हैं । (त० सू० ८।४)। ___ इनके भेदों की भी संख्या उन्होंने दी है कि क्रमशः इनके भी पांच (ज्ञानावरण ), नव ( दर्शनावरण ), दो ( वेदनीय ) , अट्ठाईस ( मोहनीय ), चार ( आयु ), बयालीस ( नाम ), दो ( गोत्र ), तथा पाँच ( अन्तराय ) भेद होते हैं । (त० सू० ८।५ ) । इसका पूरा विवरण विद्यानन्दिन आदि ने [ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीकाओं में दिया है इसलिए विस्तार के डर से यहाँ नहीं दिया जा रहा है ।
यथाऽजागोमहिष्यादिक्षीराणामेतावन्तमनेहसं माधुर्यस्वभावादप्रच्युतिस्तथा ज्ञानावरणादीनां मूलप्रकृतीनामादितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटयः परा स्थितिः (त० सू० ८।१४) इत्याधुक्तकाला दुर्दान्तवत्स्वीयस्वभावादप्रच्युतिः स्थितिः।।
यथाऽजागोमहिष्यादिक्षीराणां तीवमन्दादिभावेन स्वकार्यकरणे सामर्थ्यविशेषोऽनुभावः तथा कर्मपुद्गलानां स्वकार्यकरणे सामर्थ्यविशेषोऽनुभावः । कर्मभावपरिणत-पुद्गलस्कन्धानामनन्तानन्त-प्रदेशानामात्मप्रदेशानुप्रवेशः प्रदेशबन्धः।
स्थितिबन्ध-जैसे बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध अपने माधुर्य के स्वभाव से किसी निश्चित काल ( अनेहस् = समय ) तक च्युत नहीं होते ( उनमें किसी निश्चित समय तक