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सर्वदर्शनसंग्रहे
जाता है। उसी तरह, अनेक स्थानों में रहने के कारण, शरीर की भाँति, इनका बोध 'काय' शब्द गे होता है। [ इनके अस्तिकाय नाम पड़ने का कारण बतलाया जा रहा है कि 'अस्ति' मे काल का बोध होता है 'काय' में देश का । कोई भी वस्तु किसी न किसी देश या काल ( Time or Space ) में रहती है। 'अस्तिकाय' शब्द दर्शन के अन्तस्तल का स्पर्क करनेवाला है जिसमें वस्तुओं के दो व्यापक तत्त्वों का बोध कराने की मामर्थ है । ]
तत्र जीवा द्विविधाः, संसारिणो मुक्ताश्च । भवाद्भवान्तरप्राप्तिमन्तः संसारिणः । ते च द्विविधाः--समनस्का, अमनस्काश्च । तत्र संज्ञिनः समनस्काः। शिक्षाक्रियाऽऽलापग्रहणरूपा संज्ञा । तद्विधुरास्त्वमनस्काः। ते चामनस्का द्विविधाः, सस्थावरभेदात् । तत्र द्वीन्द्रियादयः शङ्कगण्डोलकप्रभृतयः चतुर्विधास्त्रसाः । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः । ___ जीव दो प्रकार के हैं-संसारी और मुक्त । एक जन्म ( भव ) से दूसरे जन्म की प्राप्ति करनेवाले जीव संसारी कहलाते हैं। वे भी दो प्रकार के हैं--समनस्क और अमनस्क । उनमें संज्ञायुक्त जीव समनस्क हैं। [ संज्ञा से लोग खाने-पीने आदि की चेतनता समझते हैं जो पशुओं में भी है, लेकिन जैन लोग इमे मीमित अर्थ में लेते हैं। ] शिक्षा ( दुसरों का उपदेश ), क्रिया, आलाप, ( वातचीत ) का ग्रहण करना ही संज्ञा है। [ संज्ञा मे गन्धर्व, मनुष्य आदि का ही ग्रहण होता है क्योंकि ये ही दूसरों के गुण-दोष के विचार में निपुण हैं । पशु-पक्षियों में कुछ ही ऐसे हैं जैसे-हाथी, घोड़ा, बन्दर, सुग्गा आदि । ] अमनस्क जीव संज्ञा से रहित हैं, जिनके दो भेद हैं-त्रस और स्थावर । उनमें दो इन्द्रियाँ आदि से युक्त शंख, गण्डोलक ( गण्डकी का एक पत्थर ) आदि चार प्रकार के जीव त्रस हैं । पृथिवी, जल, तेज ( अग्नि ), वायु और वनस्पति स्थावर हैं ।
विशेप-अम का अर्थ सामान्यतः लोग गतिशील ( Locomotive ) और स्थावर का अर्थ अगतिशील ( Immovable ) लेते हैं। लेकिन आपाततः प्रतीत होने पर भी उनका यह अर्थ नहीं है। त्रस और स्थावर दोनों ही विशेष प्रकार के कर्मों के बोधक हैं। इन कर्मों से ही कोई जीव जन्म लेकर स्थावर होता है, कोई त्रस । शुभ और अशुभ दोनों तरह के कर्मों का नाम त्रस है। प्रायः अशुभ कर्म का नाम थावर है। त्रस कर्म के उदय होने से जो जीव जन्म लेते हैं, वे त्रस हैं, स्थावर कर्म के उदय से स्थावर जीव जन्म लेते हैं।
त्रम जीवों के चार प्रकार हैं-(१) द्वीन्द्रिय ( स्पर्श और रसन की इन्द्रियों से गगन ) जैसे- शंख, गण्डोलक, शुक्ति ( सीपी ), कृमि ( कीट ) आदि । (२) त्रीन्द्रिय ( सर्ग, रमन और घ्राण )-पिपीलिका ( चींटी ), यूक ( जोंक ) आदि । ( ३ ) चतुरिन्द्रिय ( ऊपर के तीन तथा चक्षु )-दंश, मशक ( मच्छर ), भ्रमर आदि । ( ४ )