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आहेत-दर्शनम्
पूर्व में और अन्त में ज्ञान ही हैं-इसे ही आत्मा कहा गया है ।' [ यह स्पष्ट है कि चैतन्य जीव का स्वाभाविक भाव है, जीव की एक विशेष अवस्था ज्ञान है- इस अवस्था-विशेष ( ज्ञान ) मे जीव अत्यन्त भिन्न नहीं है। अत्यन्त अभिन्न भी वह नहीं कि जीव को ज्ञान ही कह दें । तब ? दोनों ही सोमाए' ( Extremes ) अभिन्न और भिन्न साथ-साथ उसमें हैं । जीव में अपने दृष्टिकोण से ज्ञानवत्ता है इसलिए वह ज्ञान से अभिन्न है, दूसरों के दृष्टिकोण से अज्ञानवत्ता है इसलिए ज्ञान से वह भिन्न भी है। पूर्वापरीभूत ज्ञान का अर्थ है--'ज्ञान का प्रवाह' यही आत्मा है। 'कथंचन' का प्रयोग बतलाता है कि सत्ता अनेकान्त ( बहुत-सी संभावनाओं से युक्त ) है।] ____ अब कोई शंका कर सकता है-'भेद और अभेद एक दूसरे का परिहार ( विरोध ) करते हुए अवस्थित हैं इसलिए वास्तव में दोनों में से कोई एक ही हो सकता है, दोनों होना असंगत है।' [ तो हमारा उत्तर है कि ] ऐसी शंका निराधार है, क्योंकि इसके बाधक ( Contrary ) में प्रमाण नहीं मिलता। किसी वस्तु की अप्राप्ति को ही बाधक प्रमाण कहते हैं, यहाँ पर अप्राप्ति है ही नहीं। कारण यह है कि स्याद्वाद का सिद्धान्त माननेवाले ( जैनों ) के मत से सभी वस्तुओं में अनेकान्तात्मकता है-यही कहना पर्याप्त है।
विशेष-जैनों का एक विशिष्ट सिद्धान्त है—अनेकान्तवाद, जिसका अर्थ है कि किसी वस्तु का कोई रूप निश्चित नहीं, सभी वस्तुएं अनिश्चित हैं-सत्ता-असत्ता दोनों हैं, इसे सप्तभङ्गी नय के द्वारा वे व्यक्त करते हैं। इसमें स्यात् ( कथंचित् ) शब्द का प्रयोग होने के कारण जैनों को स्याद्वादी भी कहते हैं। अनेकान्तवाद को अपनाने के कारण जैनों में सभी तरह के सिद्धान्तों को अपनाने की परम्परा है । वे सभी विचारों का आदर करते हैं। इसकी विवेचना इसी दर्शन में आगे होगी। इसी सिद्धान्त के कारण यहाँ पर जीव में ज्ञान से भित्रता और अभिन्नता दोनों मानते हैं । यही भेद और अभेद दोनों की एक साथ उपलब्धि नहीं होती। तभी उपर्युक्त शंका हो सकती थी। अनेकान्तवाद मानने के बाद यह सब विचार मिट जाता है।
( १९. पाँच तत्त्व-दूसरा मत ) अपरे पुनर्जीवाजीवयोरपरं प्रपञ्चमाचक्षते जीवाकाशधर्माधर्मपुद्गलास्तिकायभेदात् । एतेषु पञ्चसु तत्त्वेषु कालत्रयसम्बन्धितया अस्तीति स्थितिव्यपदेशः । अनेकप्रदेशत्वेन शरीरवत्कायव्यपदेशः।
दूसरे ( जैन-दार्शनिक ) लोग अब जीव और अजीव ( = उपर्युक्त भेदीकरण ) का एक दूसरा ही प्रपञ्च ( विस्तार, वर्गीकरण ) करते हैं जिनके अनुसार [ ये पांच | अस्तिकाय ( पदार्थ ) हैं—जीव, आकाश, धर्म, अधर्म और पुद्गल । इन पाँच नत्त्वों का सम्बन्ध चूंकि तीनों कालों ( भूत, वर्तमान, भविष्यत् ) से है ( = तीनों कालों में ये स्थित हैं ) इसलिए 'अस्ति' शब्द के द्वारा इनकी स्थिति ( Existence सत्ता ) का बोध कराया
९ स० सं०