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सर्वदर्शनसंग्रहे
भेद ) को जानने का साधन वह ( उपयोग ) ही है। [ प्रदेश = अवयव; जीव के प्रदेशों में जो मिथःसंयोग है वह कभी दृढ़ रहता है कभी शिथिल। कभी-कभी फल देने के लिए प्रवृत्त होनेवाले कर्म के अवयव जीव के अवयवों के संयोग को शिथिल कर अन्दर घुस आते हैं । इस प्रकार कर्म और जीव के प्रदेशों का मिश्रण होता है, इसे ही प्रदेशबन्ध कहते हैं क्योंकि ऐसा करने से जीव अपने अवयवों के कारण ही बन्धन ( Bondage ) में पड़ता है। वह तब तक मुक्ति ( Liberation ) नहीं पा सकता, जब तक कर्म के अवयव पृथक न हो जाय । किसी सामान्य उपाय से उन्हें पृथक रूप से जानना कठिन है। उपाय है तो 'उपयोग' । उसी से जीवात्मा अपने में मिले हुए कर्म के परमाणुओं ( पुद्गलों ) से पृथक् ज्ञात होता है, क्योंकि जीवात्मा चैतन्यरूप में परिणत हो जायगा, जिसे उपयोग से जान लेंगे। दूसरी ओर कर्म के पुद्गल चैतन्यरूप में परिणत नहीं होंगे। उपयोग इस प्रकार मोक्ष का मार्ग तैयार करता है।]
चैतन्य सभी जीवों में सामान्यरूप से पाया जाता है; एक ओर उपशम ( थोड़ी देर के लिए कारणवश शान्त हो जाना ) और क्षय ( अत्यन्ताभाव ) तथा क्षय और उपशम के वश में होकर, औपशमिकक्षय के रूप में क्षायोपशमिक भाव के द्वारा, दूसरी ओर, कर्मों के उदय हो जाने के कारण कलुष ( पाप ) या दूसरे आकार के द्वारा [ वही चैतन्य प्रतीत होता है ], परिणाम ( आत्मस्वरूप जानने के लिए परिवर्तन ) से युक्त जीव की अवस्थाओं की बात उठती है तब [ वही चैतन्य ] जीव का अपना रूप ( Real nature ) बन जाता है। ऐसा ही वाचकाचार्य ने कहा है-'औपशमिक, क्षायिक और दोनों का मिश्रण, औदयिक और. पारिणामिक-ये ( पाँच ) भाव जीव के अपने रूप हैं' ( तत्त्व० सू० २।१ )।
विशेष-भाव ( अवस्थाएं ) पांच हैं-उपशम से सम्बद्ध, क्षय से सम्बद्ध, दोनों के मिश्रण (क्षयोपशम, उपशमक्षय ) से सम्बद्ध, उदय से सम्बद्ध तथा परिणाम से सम्बन्ध । (१) उपशम का अर्थ है थोड़ी देर के लिए उत्पन्न होना । जिस प्रकार फिटकिरी के प्रयोग से पानी में कीचड़ बैठ जाती है ( Sedimentation )। यह पंक का उपशम है, वैसे ही आत्मा में कर्म का अपनी शक्ति के कारणवश दब जाना उपशम ( Subsistence ) है। जिस भाव का लक्ष्य केवल उपशम करना है उसे औपशमिक कहते हैं, जो जीव की एक विशिष्ट अवस्था है। (२) क्षय ( Dissociation ) किसी पदार्थ के आत्यन्तिक अभाव को कहते हैं (प्रध्वंसाभाव, क्योंकि वर्तमान पदार्थ का ही क्षय करना अभीष्ट है, भ्रम से अत्यन्ताभाव न समझें जिसमें अन्त आदि किसी का पता नहीं रहता)। जैसे कांच के बर्तन में रखे या मेघ में स्थित जल में पंक का बिल्कुल विनाश हो जाता है। जिस भाव का लक्ष्य कर्म का क्षय करना है उसे क्षायिक कहते हैं । (३) क्षय और उपशम-दोनों के मिश्रण को क्षयोपशम कहते हैं, जैसे कुएं के जल में