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बौद्ध-दर्शनम् सौत्रान्तिका भवन्तु' इति। भगवताऽभिहिततया सौत्रान्तिकसंज्ञा संजातेति ॥
तो, इन दोनों का ( दुःख के कारणों का, अथवा दुःख और दुःख कारण का ) निरोध होता है। उसके बाद विमलज्ञान का उदय होने से मुक्ति होती है। दुःख को रोकने का उपाय ही मार्ग है । वह ( मार्ग ) है तत्त्वों को जानना । वह तत्वज्ञान प्राचीन भावनाओं के ही कारण होता है-यही सबसे बड़ा रहस्य है। सूत्र के अंतिम सिद्धान्त पूछनेवालों को ( बुद्ध ने ) कहा-'.."और आप लोग सूत्र के अन्त (गूढ़ रहस्य ) को पूछते हैं, इसलिए सौत्रान्तिक हों।' भगवान् (बुद्ध ) के कहने से इनका नाम सौत्रान्तिक पड़ गया ।
विशेष-दुःखनिरोध के आठ क्रमिक मार्ग बुद्ध ने बताये हैं । वे हैं-सम्यक् दृष्टि ( ज्ञान ), सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, कर्मान्त (पंचशील, दशशील ), सम्यक् आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति तथा सम्यक समाधि। इन्हें अष्टांग-मार्ग कहते हैं। सम्यक का अर्थ है मध्यम-मार्ग, दोनों अतियों ( Extremes ) का परित्याग । न अधिक भोग न अधिक तपस्या। इसके काव्यमय वर्णन के लिए बुद्ध की निर्वाण-त्राप्ति पर हिन्दी में लिखे गये मेरे निरंजना-खंडकाव्य को देखें।
सौत्रान्तिक नाम पड़ने का कारण है, सूत्रान्तों को मानना। ये अभिधम्मपिटक को नहीं मानते, क्योंकि बुद्धवचन न होने से भ्रान्त हैं । बुद्ध के आध्यात्मिक उपदेश सुत्त-पिटक में ही संनिविष्ट हैं । इससिए ये उसे ही प्रामाणिक मानते हैं। यशोमित्र अपनी स्फुटार्था में कहते हैं—'कः सौत्रान्तिकार्थः ? ये सूत्रप्रामाणिका न तु शास्त्रप्रामाणिकास्ने सौत्रान्तिकाः।' शास्त्र = अभिधर्म। इस सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य ये हैं—कुमारलात ( २०० ई०, तक्षशिलावासी ग्रन्थ-कल्पनामंडतिका, श्रीलाभ ( कुमार के शिष्य, सौत्रान्तिक विभाषा को रचना ), धर्मत्रात और बुद्धदेव ( वसुबन्धु द्वारा उल्लिखित ), यशोमित्र ( अभिधर्मकोष की टीका स्कुटार्था )।
(३०. वैभाषिक-मत-बाह्यार्थप्रत्यक्षत्ववाद ) केचन बौद्धाः--बाह्येषु गन्धादिष्वान्तरेषु रूपादिस्कन्धेषु सत्स्वपि, तत्रानास्थामुत्पादयितुं सर्व शून्यमिति प्राथमिकान्विनेयान् अचकथद्भगवान्, द्वितीयांस्तु विज्ञानमात्रग्रहाविष्टान्विज्ञानमेवैकं सदिति, तृतीयानुभयं सत्यमित्यास्थितान्विज्ञेयमनुमेयमिति, सेयं विरुद्धा भाषेति वर्णयन्तःवैभाषिकाख्यया ख्याताः। __कुछ बौद्ध वैभाषिक के नाम से प्रसिद्ध हैं, क्योंकि ये इन ( तीनों सम्प्रदायों ) की बात को विरुद्ध भाषा (विभाषा ) कहकर मानते हैं--यद्यपि गन्धादि बाह्य पदार्थों और रूपादि स्कन्ध के आन्तरिक पदार्थों की सत्ता है, फिर भी भगवान् बुद्ध ने ( १ ) पहले
१-सूत्रान्तं पृच्छति इति सौत्रान्तिकः । पृच्छतौ सुस्नातादिभ्यः' इति ठक् । ६ स० सं०