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आर्हत-दर्शनम्
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निर्माण करना है तब तो प्रलय नहीं हो सकेगी। यदि संहार करना ही स्वभाव मानें तो संसार की उत्पत्ति और स्थिति असम्भव हो जायेगी । अगर दोनों को हो स्वभाव मानें तो विरोध पड़ेगा तथा असंगति होगी । काल के भेद से स्वभाव में भेद मानें तो अनित्यत्व ही होगा । ( अभ्यङ्कर ) ।
( १३. सर्वज्ञ की सिद्धि ) तस्मात्प्रागुक्तकारणत्रितयबलादांवरणप्रक्षये
सार्वश्यं युक्तम् । न चास्योपदेष्टृन्तराभावात् सम्यग्दर्शनादित्रितयानुपपत्तिरिति भणनीयम् । पूर्वसर्वज्ञप्रणी तागमप्रभवत्वादमुष्य अशेषार्थज्ञानस्य । न चान्योन्याश्रयादिदोषः । आगमसर्वज्ञपरम्पराया बीजांकुरवदनादित्वाङ्गीकारादित्यलम् ।
इसलिए पूर्वोक्त तीनों कारणों ( सम्यक दर्शन, ज्ञान और चारित्र ) के बल से आव रण के क्षीण हो जाने पर सर्वज्ञ कहना ( किसी को भी ) युक्तियुक्त है। ऐसा नहीं कहना चाहिए कि इस वाक्य के उपदेशक कोई दूसरे नहीं ( स्वयं सर्वज्ञ ही हैं ), अतः सम्यम् दर्शन आदि तीनों कारणों की असिद्धि हो जायगी । ( चूंकि सम्यक् दर्शनादि को सर्वज बनने का कारण बतलानेवाला वाक्य स्वयं सर्वन का ही कहा हुआ है, इसलिए सर्वन ही कारण बतलावे, इसमें आत्माश्रय-दोप हुआ । किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं ) क्योंकि पहले के सर्वज्ञों के द्वारा बनाये गये आगमों में अशेष वस्तुओं का यह ज्ञान उत्पन्न होता है ।
उसके बाद, अन्योन्याश्रय आदि दोषों की भी कल्पना यहाँ नहीं करें, क्योंकि आगम और सर्वज्ञ की परम्परा बीज और अंकुर की परम्परा के समान ही जनादि है | बगना पर्याप्त है ।
विशेष - आगम में सर्वज्ञ की बात कही गई है और सर्व का बनाया हुआ आगम है, इससे दोनों में अन्योन्याश्रय-दोष तो हुआ ही । इसका उत्तर है कि इन दोनो-आगमी सर्वज्ञ में बीज और अंकुर का सम्बन्ध है । जिस बीज से कोई अंकुर उसी बीज का कारण नहीं होता, किन्तु किसी दूसरे बीज को उत्पन्न करता है | प्रकार जयका तो प्रसंग आता ही नहीं । फिर भी पहले बीज हुआ कि अंकुर, यह जानना कठिन है इसीलिए दोनों का सम्बन्ध अनादि मानते हैं । आगम भी जिस सर्व की बात कहता सर्वज्ञ के द्वारा प्रणीत नहीं, बल्कि उसके पहले के किसी सर्व के द्वारा बनाया गया है । ( १४. त्रिरत्नों का वर्णन - सम्यक् दर्शन )
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रत्नत्रयपदवेदनीयतया प्रसिद्धं सम्यग्दर्शनादित्रितयमर्हत्प्रवचनसंग्रहपरे परमागमसारे प्ररूपितम् - 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' इति ( त० सू० १1१ ) ।
विवृतं च योगदेवेन - ' येन रूपेण जीवाद्यर्थी व्यवस्थितस्तेन रूपेण अर्हता प्रतिपादिते तत्त्वार्थे विपरीताभिनिवेश रहितत्वाद्यपरपर्यायं श्रद्धानं